Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ४ /५९
महल में पधारकर कुमार कुछ समय राजा महेन्द्र के पास बैठे और पश्चात् महारानी को नमस्कार कर अंजना को देखने की अभिलाषा से उसके महल की तरफ प्रस्थान किया, परन्तु .... वहाँ भी अंजना को न पाकर अत्यन्त विरहातुर होते हुये किसी बालिका से पूछा - " बालिके ! हमारी प्रिय अंजना कहाँ है ?"
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उत्तर देते हुये उसने कहा - "हे देव ! आपकी प्रिया यहाँ नहीं है, उसे तो महाराजश्री ने वनवास भेज दिया है । "
इस बात को सुनकर जैसे बज्रपात गिरा हो - ऐसे कुमार का हृदय चूर-चूर हो गया । जैसे कान में पिघला हुआ गर्म शीशा डाला गया हो ऐसी उनकी दशा हो गयी, उनके होश खो गये। जीव रहित मृत शरीर जैसी उनकी दशा हो गयी। शोकाताप से उनका मुख एकदम कांतिविहीन हो गया। इस प्रकार हतोत्साहित होकर कुमार ने शीघ्र ही महेन्द्रनगर का परित्याग कर दिया और अंजना की खोज हेतु सोचने लगे ।
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कुमार को अत्यन्त आतुर देख कर उनके मित्र प्रहस्त को भी बहुत दुख हुआ। वह कहने लगा- " हे मित्र ! तुम खेद - खिन्न क्यों होते हो ? धैर्य धारण कर अपने चित्त को निराकुल करो । यह पृथ्वी है ही कितनी सी। अंजना जहाँ भी होगी, हर संभव प्रयत्न करके हम उसे खोज लेंगे।"
कुमार ने कहा - " हे मित्र ! तुम तो मेरे पिता के पास आदित्यपुर वापस जाओ और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त से अवगत कराकर कहना कि यदि मेरी प्रिया फिर से मुझे प्राप्त नहीं हुई तो मेरा जीवन भी असंभव है। मैं स्वयं तो पृथ्वीतल पर चारों ओर उसकी खोज करूँगा ही, तुम भी योग्य व्यवस्था करो। "
कुमार की आज्ञानुसार प्रहस्त ने तो आदित्यपुर की तरफ प्रस्थान किया और इधर पवनकुमार अकेले ही अम्बरगोचर नामक हाथी पर चढ़कर अंजना की खोज हेतु पृथ्वी पर वन जंगलों में चारों तरफ विचरण
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