Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/५१ मुनिराज का वह वचन याद करके कि 'यह पुत्र चरम शरीरी है' - इस पुत्र के जन्म देने से तो निश्चित ही तेरी कोख पवित्र हो गयी है। यह बालक तेजस्वी है, इसके प्रभाव से सब अच्छा ही होगा, अत: तू व्यर्थ चिन्ता का परित्याग कर एवं पुत्र का अवलोकन करके आनंदित हो।
देख ! यह वन भी तेरे पुत्र का जन्मोत्सव मना रहा है। वृक्ष एवं पुष्प भी पुलकित होकर मुस्करा रहे हैं, बेलें हर्ष में डोल रही हैं, मयूर नृत्य एवं भँवरे मधुर गुंजार कर रहे हैं, हिरण भी वात्सल्य से तेरे पुत्र का अवलोकन कर रहे हैं - इस प्रकार तेरे पुत्र के जन्मोत्सव से तो सारा वन ही प्रफुल्लित हो गया है।"
दोनों सखियों में इस प्रकार परस्पर वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी वसन्तमाला ने आकाशमार्ग से सूर्यसम तेजस्वी एक विमान आता हुआ देखा। इसकी सूचना उसने अपनी स्वामिनी अंजना को दी।
विमान दृष्टिगोचर होते ही अंजना भयभीत हो शंकाशील हो गयी और जोर से पुकारने लगी- अरे ! यह कोई शत्रु निष्कारण ही मेरे पुत्र का अपहरण करने आया है या कोई मेरा हितैषी है ?"
अंजना की उक्त पुकार सुनकर विमान में विद्यमान विद्याधर को दया उत्पन्न हो गयी, अत: उसने अपने विमान को गुफा द्वार के समीप उतार दिया और विनयपूर्वक पत्नी सहित गुफा में प्रवेश किया।
निर्मल चित्तधारी विद्याधर को गुफा में प्रवेश करते देखकर वसंतमाला ने उसका यथोचित आदर-सत्कार किया। कुछ देर तक तो विद्याधर मौनपूर्वक बैठा रहा, तत्पश्चात् गंभीरवाणी में उसने वसंतमाला से पूछा – “हे बहिन ! सुमर्यादाधारक यह स्त्री कौन है ? इसके पिता एवं पति का क्या परिचय है ? यह तो किसी बड़े घर की लगती है, फिर भी कुटुम्बीजनों से बिछुड़ कर इसके वन-निवास का क्या कारण है ? जगत में राग-द्वेष रहित उत्तम जीवों के भी पूर्वकर्मोदय के फलानुसार बिना