Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 54
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/५२ कारण जीव शत्रु बन जाते हैं। यह तो धर्मात्मा ज्ञात होती है, इस पर इस संकट का कारण क्या है ?" --- विद्याधर द्वारा स्नेहपूर्वक पूछे गये प्रश्नों के प्रत्युत्तरस्वरूप वसंतमाला दुख से रुंधे हुये स्वर में कहने लगी- “हे महानुभाव ! आपके वचनों द्वारा ही आपके मन की पवित्रता ज्ञात हो रही है। जैसे दाह-नाशक चंदन वृक्ष की छाया भी प्रिय प्रतीत होती है, इसी तरह आप जैसे गुणवान पुरुषों की छाया भी हृदय के भाव प्रगट करने का स्थान है। आप जैसे महानुभाव के समक्ष दुख निरूपण करने से दुख निवृत्त हो जाता है, आप दुख-हर्ता हैं, कारण कि आपदाओं में सहायता करना तो सज्जनों का स्वभाव ही है। आपने हमारा दुख सुनने की अभिलाषा व्यक्त की है, अतः मैं सुनाती हूँ, आप ध्यान पूर्वक सुनिये - इस स्त्री का नाम अंजनां है, यह भूतल पर प्रसिद्ध महेन्द्र राजा की पुत्री है एवं राजा प्रहलाद के पुत्र पवनंजय इसके पति हैं।" तत्पश्चात् वसंतमाला ने पवनकुमार के अप्रिय प्रसंग एवं युद्ध से वापस आना, सास द्वारा घर से निष्कासित करना इत्यादि सर्व प्रसंगों का ज्यों का त्यों वर्णन करते हुये कहा – “हे महानुभाव ! यह अंजना सर्वदोष परिमुक्त, सती, शीलवंती एवं निर्विकार है, धर्मात्मा है। यहाँ रहकर मैं भी इसकी सेवा करती हूँ, मैं इसकी आज्ञाकारिणी सेविका एवं विश्वासपात्र सखी हूँ, मुझ पर इसकी विशेष कृपा-दृष्टि है। आज ही गुफा में इसने बालक को जन्म दिया है। अनेक भयों से मुक्त इस वन में कौन जाने किसतरह इसे सुख प्राप्त होगा? - हे राजन् ! यह हमारे दुख का संक्षिप्त वृत्तान्त है। सम्पूर्ण दुख तो अकथनीय है।" इस प्रकार अंजना के दुखरूपी आताप से पिघलकर वसंतमाला के हृदय में स्थित स्नेह, वचनों द्वारा अभिव्यक्त हो गया। वसंतमाला द्वारा कथित अंजना की करुण-कथा सुनकर विद्याधर

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