Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 43
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४१ चरम शरीरी है, अतः अब पुन: देह धारण नहीं करेगा, परम सुखरूप मोक्षदशा को प्राप्त करेगा – यह भव उसका अन्तिम भव है। इस तरह हे कल्याण चेष्टावंती! यह तो हुआ उस पुत्र का वृत्तान्त, जो अंजना के गर्भ में स्थित है। अब अंजना का वृत्तान्त सुनो, जिसके कारण इसे पति का वियोग एवं कुटुम्ब द्वारा तिरस्कृत होना पड़ा! इस अंजना ने पूर्वभव में पटरानी पद के अभिमान के कारण अपनी सोत पर क्रोध करके देवाधिदेव श्री जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को जिनमंदिर से बाहर निकाल दिया था। उसी समय समयश्री नामक आर्यिका इनके घर पर आहार हेतु पधारी थीं, किन्तु जिनप्रतिमा का अनादर देखकर उन्होंने आहार नहीं किया और प्रस्थान हेतु उद्यत हुई तथा इसे अज्ञानी समझकर अत्यन्त करुणापूर्वक उपदेश देने लगीं। कारण कि साधु तो सभी का कल्याण ही चाहते हैं और जीवों को समझाने के लिये पात्र से बिना पूछे ही गुरु-आज्ञा से धर्मोपदेश हेतु प्रवर्तते हैं। इसी प्रकार शील एवं संयम रूप आभूषण से अलंकृत समयश्री नामक आर्यिका भी अत्यन्त मधुर अनुपम वचनों के द्वारा पटरानी से कहने लगीं - "अरे भोली ! सुनो ! तुम रूपवती हो, राजा की पटरानी हो और राजा का तुम्हारे प्रति विशेष स्नेह है - यह सब तो पूर्वोपार्जित पुण्य का फल है। यह जीव मोह के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण करता हुआ महादुख का सेवन करता है। अनंतकाल में कभी महान पुण्योदय के कारण यह मनुष्यदेह प्राप्त करके भी जो सुकृत्य नहीं करता, वह तो हाथ में आये हुये रत्न को व्यर्थ ही खो देता है। अशुभ क्रियायें दुख की मूल हैं। अत: तू निज कल्याणार्थ श्रेष्ठ कार्यों में प्रवर्त – यही उत्तम है। यह लोक तो महानिंद्य अनाचार से भरा हुआ है; जो स्वयं इस संसार से तिरते हैं, वे धर्मोपदेश द्वारा अन्य जीवों को भी तारने में निमित्त होते हैं, अत: उनके समान अन्य कोई उत्तम नहीं है, वे कृतार्थ हैं और ऐसे

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