Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३८ प्रदक्षिणा देकर मुनिराज को नमस्कार किया, मुनिराज जैसे परम बांधव के दर्शन से उनके नेत्र प्रफुल्लित हो गये। आँसू रुक गये और नजरें मुनिराज के चरणों में ही स्थिर हो गईं-वे दोनों हाथ जोड़कर महाविनयपूर्वक इस प्रकार मुनिराज की स्तुति करने लगीं।
हे भगवन ! हे कल्याणरूप ! हे उत्तमध्यान के धारक ! हे नाथ ! आप जैसे संत तो समस्त जीवों की कुशलता के कारण हैं, अत: आपकी कुशलता के बारे में क्या पूछना ? हे नाथ ! आप तो संसार का परित्याग कर आत्महित की साधना में मग्न हैं, आप महापराक्रमी, महाक्षमावान हैं, परमशान्ति के धारक हैं, उपशांतरस में झूलने वाले हैं, मन और इन्द्रियों के विजेता हैं, आपका समागम जीवों के कल्याण का कारण है।
__ - इस प्रकार अत्यन्त विनयपूर्वक स्तुति करके दोनों वहीं बैठ गयीं, मुनिवर के दर्शनों से दोनों का सम्पूर्ण कष्ट दूर हो गया।
मुनिराज का ध्यान पूर्ण होने पर दोनों ने पुनः उन्हें नमस्कार किया, तब स्वयमेव मुनिराज परमशान्त अमृत वचन कहने लगे -
“हे कल्याणरूपिणी ! रत्नत्रय धर्म के प्रसाद से हमें पूर्ण कुशलता है। हे पुत्री ! सभी जीवों को अपने-अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के उदयानुसार संयोग-वियोग प्राप्त होते हैं। देखो कर्मों की विचित्रता ! यह राजा महेन्द्र की पुत्री अपराधरहित होने पर भी परिजनों द्वारा तिरस्कृत की गयी है।"
बिना कहे ही सम्पूर्ण वृत्तान्त जान लेने वाले उन धीर-वीर-गंभीर मुनिराज से वसंतमाला ने पूछा- “हे नाथ ! क्या कारण है कि इसके पति इतने वर्षों इससे उदास रहे और तत्पश्चात् इसमें अनुरक्त हुये ? और किस कारण से यह महासती वन में दुख को प्राप्त कर रही है तथा इसके गर्भ में कौन भाग्यहीन जीव स्थित है, जिसके जीवन के प्रति भी संदेह है। हे प्रभो ! कृपाकर इन प्रश्नों का उत्तर प्रदान कर मेरे संदेह का निवारण करें।"
वसंतमाला के प्रश्नों के प्रत्युत्तर स्वरूप अतुलज्ञान के धारक