Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/१७ गये और गुरुजनों की गुरुता का उल्लंघन करने में अपने आपको असमर्थ अनुभव करने लगे। अत: प्रस्थान की आज्ञा को तो उन्होंने निरस्त कर दिया, पर मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि अंजना से विवाह करके उसका परित्याग कर दूंगा। राजकुमार के प्रस्थान न करने के समाचार सुनते ही अंजना का हृदय प्रसन्न हो गया। और फिर लग्न के शुभावसर पर मानसरोवर के किनारे शास्त्रोक्त विधि-विधान पूर्वक पवनकुमार एवं कुमारी अंजना का शुभ-विवाह संपन्न हुआ। अंजना को तो कुमार के प्रति पूर्ण प्रीतिभाव था, किन्तु कुमार का भाव अंजना के प्रति अप्रीतिरूप था, पर इस बात का परिज्ञान अंजना को न था। यथासमय सभी ने अपने-अपने देशों को प्रस्थान किया। यहाँ पर गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते हैं - "हे श्रेणिक ! जो जीव वस्तुस्वरूप को न समझ कर अज्ञानतावश पर के दोष ग्रहण करते हैं, उन्हें मूर्ख समझना चाहिये और दूसरों के द्वारा किये गये दोष अपने ऊपर आ पड़ें तो उसे अपने पाप कर्म का फल समझना चाहिये।" संयोग एवं वियोग पवन कुमार ने तो कुमारी अंजना से विवाह कर उसका इस प्रकार त्याग कर दिया कि वे कभी उससे बात तक नहीं करते। अंजना पति के इस निष्ठुर व्यवहार से परम दुख का अनुभव करती थी। वह रात्रि को नींद भी नहीं ले पाती थी, उसकी आँखों से निरंतर आँसुओं की धारा बहती रहती थी एवं शरीर अत्यन्त मलिन हो गया था। पति के प्रति है अपार प्रेम जिसका - ऐसी उस सुंदरी को पति का नाम भी प्यारा लगता था, उस ओर से आनेवाली हवा भी आनंददायिनी प्रतीत होती थी। पति का रूप तो विवाह-वेदी पर ही देखा था, निरंतर उसी का चिन्तन करती थी। निश्चलरूप से सर्वचेष्टा विहीन हो बैठी रहती थी। मन

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84