Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२० वैराग्यभावपूर्ण कथा-वार्ता करतीं, उस समय अवश्य अंजना का दुख कुछ कम हो जाता था।
इस प्रकार सखी सहित अंजना का समय व्यतीत हो रहा था। बाईस वर्ष बाद.... -
जिस समय की यह कथा है, उस समय राजाओं पर लंकाधिपति महाराज रावण की आज्ञा चलती थी, किन्तु राजा वरुण ही एकमात्र ऐसा राजा था, जो रावण की आज्ञा का उल्लंघन करता था। उसका कहना था कि रावण को देवों द्वारा प्रदत्त शस्त्रों का गर्व है, किन्तु मैं उसे गर्वरहित कर दूंगा । इसी बात से कुपित होकर रावण ने उसे दैवी शस्त्रों के बिना ही पराजित करने की प्रतिज्ञा कर ली और युद्ध में सहायतार्थ अनेक राजाओं को आमंत्रित किया। पवनकुमार के पिता महाराज प्रहलाद के यहाँ भी पत्र भेजा गया।
पत्र में लिखा था – “समुद्र के मध्यद्वीप में पातालनगर निवासी राजा वरुण को जीतने के लिये हमने युद्ध प्रारम्भ कर दिया है, किन्तु युद्ध में राजा वरुण के पुत्रों ने हमारे बहनोई खरदूषण को बन्दी बना लिया है, अतः उन्हें छुड़ाने एवं युद्ध में सहायतार्थ आप शीघ्र ही आवें।"
पत्र द्वारा आज्ञा प्राप्त होते ही स्वामी भक्त राजा प्रहलाद महाराज रावण की सहायतार्थ जाने के लिए तैयार हो गये। उन्हें प्रस्थान के लिये तैयार देख कुमार पवनंजय ने कहा – “हे पिताजी ! आप युद्ध में पधारने के विचार का त्याग कर मुझे युद्ध में जाने हेतु अनुमति प्रदान करें। मैं शीघ्र ही राजा वरुण को पराजित कर दूंगा।"
तब पिता एवं माता से आज्ञा प्राप्त कर परिजनों को धैर्य बँधाकर भगवान अरहन्त-सिद्ध के स्मरण पूर्वक कुमार ने विदा ली। उस समय अंजना सुन्दरी आँसू-भीगी आँखों से दरवाजे पर खम्बे के सहारे खड़ी थी, जिसे देखकर खम्बे में उत्कीर्ण पुतली की आशंका होती थी।
उस पर नजर पड़ते ही कुमार ने अपनी नजर फेर ली और कुपित