Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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बैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२१
स्वर में कहा – “अरे ! तेरा दर्शन भी कष्टप्रद है, तू इस स्थान से चली जा, निर्लज्ज होकर यहाँ क्यों खड़ी है ?"
पति के ये कर्कश वचन भी उस समय अंजना को ऐसे मधुर प्रतीत हुये, जैसे बहुत दिनों से प्यासी चातक को मेघ की बूंद प्रिय लगती है।
वह हाथ जोड़कर गद्गद् हो कहने लगी- “हे नाथ ! जब आप यहाँ रहते थे तब भी मैं वियोगिनी थी, परन्तु आप निकट ही हैं' - ऐसी आशा से प्राण जैसे-तैसे टिके रहे; लेकिन अब तो आप क्षेत्र से भी दूर जा रहे हैं, अत: मैं किस प्रकार जीवित रहूँगी ?
“हे नाथ ! परदेश गमन के इस प्रसंग पर आपने न मात्र नगर के मनुष्यों, वरन् पशुओं को भी धैर्यता प्रदान की है और सभी को अपनी अमृतमयी वाणी से सन्तुष्ट किया है। एकमात्र में ही आपकी अप्राप्ति से दुखी हूँ। मेरा चित्त आपके चरणारविन्द का अभिलाषी है, आपने अन्य सभी को अपने श्रीमुख से धैर्य प्रदान किया है, अत: यदि उन्हीं की तरह आप मुझे भी कुछ धैर्य प्रदान करते तो अच्छा था। जब आपने ही मेरा परित्याग कर दिया, तब मेरे लिये जगत में कौन शरणरूप है ?"
तब कुमार ने मुँह बिगाड़कर कुपित स्वर में कहा - "मर !" इतना सुनते ही अंजना खेद-खिन्न हो धरती पर गिर पड़ी, कुमार उसे ढोंग (नाटक) समझकर वहाँ से प्रस्थान कर गये। सेनासहित वे सांयकाल मानसरोवर पर आ पहुँचे।
विद्याबल से एक महल का निर्माणकर कुमार पवन अपने मित्र प्रहस्त सहित उसमें बैठे हुये हैं और झरोखे में से मानसरोवर की सुन्दरता का अवलोकन कर रहे हैं। सरोवर के स्वच्छ जल में कमल खिले हुये हैं, जिसमें हंस एवं चातक पक्षी क्रीड़ा कर रहे हैं, वहीं एक चकवी एवं चकवा भी क्रीड़ा में संलग्न थे, कि तभी सूर्यास्त हो गया और चकवा-चकवी बिछुड़ गये, उसके वियोग से संतप्त चकवी अकेली आकुल-व्याकुल होने लगी। चकवे को देखने के लिये उसके नेत्र अस्ताचल की ओर लगे हुये