Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 20
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/१८ में पति के रूप का चिंतन एवं बाह्य में उनके दर्शन की अभिलाषा युक्त होने पर भी दर्शन न हो पाते थे। तब शोक-संतप्त होकर चित्रपट पर पति का चित्र बनाने हेतु प्रयत्नशील होती, किन्तु हाथ काँपने लगते और कलम गिर पड़ती। - ऐसी दशा हो जाने से अंजना का सर्वांग सुन्दर शरीर भी दुर्बल हो गया, आभूषण ढीले हो गये एवं शरीर पर वस्त्राभूषण भी भाररूप प्रतीत होने लगे। ऐसी करुणदशा में बारम्बार निज अशुभकर्मोदय की निन्दा करती हुई वह माता-पिता को याद करती। शरीर अत्यधिक शिथिल हो जाने से बार-बार बेहोश हो गिर पड़ती अथवा रो-रोकर कंठ रुंध जाता था, उस समय उस संतप्त हृदय को शान्तिदायिनी शीतल चन्द्र-किरणें भी दाहरूप ज्ञात होती थी। बेचारी ! विकल्प की मारी, नाना प्रकार विचार करती हुई मन ही मन पति से इस प्रकार अनुरोध करती- “हे नाथ ! आप सदैव मेरे हृदयकमल पर विराजमान होने पर भी मुझे आताप क्यों देते हैं। जब मैंने आपका कोई अपराध नहीं किया, तब बिना कारण मुझ पर कोप क्यों ? हे नाथ ! अब तो प्रसन्न होइये, मैं तो आपकी दासी हूँ, मेरे चित्त के शोक का हरण कीजिये। जैसे अन्तर में दर्शन देते हैं, वैसे ही बाहर से भी दर्शन दीजिये – यही मेरी करबद्ध प्रार्थना है।" इस प्रकार निज चित्त में स्थापित पति से बारम्बार मनुहार करती थी और आँखों से मोती के समान आँसू गिराती रहती। सखी वंसतमाला अंजना की सेवार्थ अनेक प्रकार की सामग्री लाती, पर उसे तो कुछ भी रुचिकर न लगता । उसका चित्त तो पति वियोग में चक्र की भांति भ्रमित हो गया था। पति वियोग से दुखित वह न तो अच्छी तरह स्नान करती, न बाल संवारती, सर्व क्रियाओं से उदास - ऐसी हो गयी मानो पाषाण ही हो, निरंतर अश्रु-प्रवाह के बहने से मानो जल ही हो, हृदयदाह से संतप्त मानो अग्नि ही हो, सदा ही पति के विकल्प

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