Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग -:
-२/१९
"हे पिताजी ! हमको धर्म की सेवा का कोई कार्य सौंपें, यदि आपने कोई कार्य नहीं सौंपा तो हम भोजन नहीं करेंगे। सभी राजपुत्र धर्मात्मा थे।" ( उनके इस मांगलिक आदर्श को देखकर युवावर्ग को धर्मकार्य में उत्साह से भाग लेना चाहिए।)
उत्साही पुत्रों के आग्रह को देखकर राजा को चिंता हुई कि उन्हें क्या काम सौंपना चाहिये ? विचार करते ही उन्हें याद आया कि हाँ, मेरे से पहले हुए भरत चक्रवर्ती ने कैलाशपर्वत पर अतिसुंदर प्रतिमायें स्थापित की हैं। उसकी रक्षा के लिए चारों ओर खाई खोद कर उसमें गंगा नदी का पानी प्रवाहित किया जाय तो उससे मंदिरों की रक्षा होगी- ऐसा विचार कर राजा ने पुत्रों को वह कार्य सौंपा।
पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके वे राजपुत्र उस काम को करने के लिए कैलाशपर्वत पर गये । वहाँ जाकर उन्होंने अत्यंत भक्तिपूर्वक जिनबिम्बों के दर्शन किये, पूजा की
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“अहा ! ऐसे अद्भुत रत्नमय जिनबिम्ब हमने कहीं नहीं देखे । हमें ऐसे भगवान के दर्शन हुए और महाभाग्य से जिनमंदिरों की सेवा करने का अवसर मिला ” - इस तरह परम आनंदित होकर वे ६० हजार राजपुत्र भक्तिपूर्वक अपने सौंपे हुए कार्य को करने लगे ।
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यहाँ चक्रवर्ती का मित्र मणिकेतु देव फिर से राजा को समझाने के लिये आया । इस समय उसने नया उपाय सोचा।
"उसने एक मोटे जहरीले साँप का रूप बनाया और कैलाशपर्वत पर जाकर उन सभी राजकुमारों को उसने डस कर बेहोश कर दिया, जिससे कोई समझे कि वे मर गये हैं- ऐसा दिखावा किया।
" कितने ही वचन हितरूप होने के साथ मधुर हो जाते हैं और कितने ही वचन हितरूप होने पर भी कटु हो जाते हैं, उसीप्रकार अहित वचनों में भी कितने मधुर और कितने ही कटु हो जाते है । वे दोनों प्रकार के अहित वचन तो छोड़ने योग्य ही हैं । "