Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 60
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/५८ वे वैरागी राजपुत्र एक साथ खड़े हुए और भगवान के सम्मुख परम विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कुछ इसप्रकार बोले, मानो चैतन्य की गुफा में से वैराग्य की मधुर वीणा बज रही हो - “हे प्रभो ! हमें मोक्ष के कारणरूप ऐसी मुनिदीक्षा चाहिये। हमारा चित्त इस संसार से उद्रास है, इस संसार के संयोग में या परभाव में कहीं भी हमें शान्ति नहीं मिली, हमें अपने निजस्वभाव के मोक्षसुख का अनुभव करवा दीजिए, जिससे हम केवलज्ञान प्रकट करके भवबन्धन से छूट जावें।" .. राजकुमार आज जीवन में पहली बार ही बोले। वाह ! पहली ही बार बोले ......और ऐसे उत्तम वचन बोले ? __ भरत चक्रवर्ती और सभाजन भी राजकुमारों के शब्दों को सुनते ही स्तब्ध रह गये, लाखों-करोड़ों देवों ने और मनुष्यों ने उनके वैराग्य की प्रशंसा की।..... तिर्यंचों के समूह भी इन वैरागी राजकुमारों को आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। राजकुमार तो अपने वैराग्य भाव में मग्न हैं। प्रभु के सन्मुख आज्ञा लेकर वे वस्त्र-मुकुट आदि परिग्रह छोड़कर मुनि हुए..... वचन-विकल्प छोड़कर शुद्धोपयोग के द्वारा निजानंद स्वरूप में लीन होकर वचनातीत आनंद का अनुभव करने लगे।..... पाठको ! इन राजकुमारों का उत्तम जीवन हमें यह शिक्षा देता है कि हे जीव ! ऐसे ही वचन तू बोल, जिसमें तुम्हारा आत्महित का प्रयोजन हो.... संसार के निष्प्रयोजन कोलाहल में मत पड़....। . सब विपत्तियों का मूल अज्ञान है। पढ़ा-लिखा अज्ञानी, अनपढ़ अज्ञानी से अधिक भयंकर होता है। अज्ञान का आभास होना ही अज्ञान के नाश की विधि है।

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