Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 66
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/६४ क्या है यह तीसरी वस्तु ! यह है ज्ञानचेतना हर्ष -शोक दोनों से सर्वथा अलिप्त, परम शान्त वर्त रही है। यह ज्ञानचेतना ना तो नरक के कर्मों को वेदती है, और ना ही तीर्थंकर प्रकृति के कर्म को वेदती है - दोनों कर्मों से भिन्न नैष्कर्म्य भाव से कर्मों से छूट कर परम शांति से मोक्षपंथ को साध रही है। यह है श्रेणिक का सच्चा स्वरूप ! उसे समझना चाहिये । तभी श्रेणिक की नरक दशा या तीर्थंकर दशा - दोनों को सुनकर तुम भी रागद्वेष से भिन्न शांत - ज्ञानचेतना रूप में रह सकोगे और मोक्षपंथ की साधना कर सकोगे । - हर्ष - खेद से पार है, सुन्दर ज्ञान स्वभाव । उस स्वभाव को साधकर, मोक्षदशा प्रगटाव ॥ चाहे कितना चतुर कारीगर हो तथापि वह दो घड़ी में मकान तैयार नहीं कर सकता, किन्तु यदि आत्मस्वरूप की पहिचान करना चाहे तो वह दो घड़ी में भी हो सकती है। आठ वर्ष का बालक अनेक मन का बोझ नहीं उठा सकता, किन्तु यथार्थ समझ के द्वारा आत्मा की प्रतीति करके केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। आत्मा पर द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता, किन्तु स्व- द्रव्य में पुरुषार्थ के द्वारा समस्त अज्ञान का नाश करके, सम्यक्ज्ञान को प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। स्व परिणमन में आत्मा सम्पूर्ण स्वतन्त्र है, किन्तु पर में कुछ भी करने के लिए आत्मा में किंचित्मात्र सामर्थ्य नहीं है। आत्मा में इतना अपार स्वाधीन पुरुषार्थ विद्यमान है कि यदि वह उल्टा चले तो दो घड़ी में सातवें नरक जा सकता है और यदि सीधा चले तो दो घड़ी में केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध हो सकता है। T • वस्तु विज्ञान सार से साभार

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