Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 73
________________ 'जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७१ माँ कहती है - 'अरे बेटा ! मुनिराज ने कहा है कि तुम चरमशरीरी हो, इसलिए तुम तो इस भव में ही मोक्ष सुख प्राप्त करोगे और भगवान बनोगे ।" हनुमान कहते हैं - “ अहो, धन्य हैं वे मुनिराज ! धन्य हैं !! हे माता, जब मुझे तुम्हारे जैसी माता मिली, तब फिर मैं दूसरी माता का क्या करूँगा ? और तुम भी इस भव में आर्यिका व्रत धारण कर, अनन्त भवों का अन्त करके शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करना । " अंजना कहती है – “वाह बेटा ! तुम्हारी बात सत्य है ? सम्यक्त्व के प्रताप से अब फिर कभी यह निंद्य स्त्री पर्याय नहीं मिलेगी, अब तो संसार दुःखों का अंत नजदीक आ गया है। बेटा, तुम्हारा जन्म होने से लौकिक दुःख टल गये और अब संसार- - दुःख भी जरूर दूर हो जावेगा । " 3 हनुमान कहते हैं - "हे माता ! संसार का संयोग-वियोग कितना विचित्र है और जीवों के प्रीति - अप्रीति के परिणाम भी कितने चंचल और अस्थिर हैं। एक क्षण में जो वस्तु प्राणों से भी प्रिय लगती है, दूसरे क्षण में वही वस्तु उतनी ही अप्रिय हो जाती है और फिर बाद में वही वस्तु फिर से प्रिय लगने लगती है। इसप्रकार दूसरे के प्रति प्रीति- अप्रीति के क्षणभंगुर परिणामों के द्वारा जीव आकुल-व्याकुल होते हैं । मात्र चैतन्य

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