Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 74
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७२ का सहज ज्ञानस्वभाव ही स्थिर और शांत है । वह प्रीति-अप्रीति से रहित है और ज्ञानस्वभाव की आराधना के अलावा अन्यत्र कहीं सुख नहीं है । ' अंजना कहती है – “वाह बेटा ! तुम्हारी मधुर वाणी सुनकर प्रसन्नता होती है | जिनधर्म के प्रताप से हम भी ऐसी ही आराधना कर रहे हैं। जीवन में सबकुछ देखा, सुखमयं आत्मा देखी, इसीप्रकार दुःखमय संसार को भी जान लिया। बेटा ! अब तो बस ! आनंद से मोक्ष की ही साधना करना है।” इसप्रकार माँ-बेटा (अंजना और हनुमान) बहुत बार आनंद से चर्चा करते हैं, और एक-दूसरे के धर्म संस्कारों को पुष्ट करते हैं। वहाँ हनुरुह द्वीप में हनुमान, विद्याधरों के राजा प्रतिसूर्य के साथ देव की तरह क्रीडा करते हैं और आनंदकारी चेष्टाओं के द्वारा सबको आनंदित करते हैं। धीरे-धीरे हनुमान युवा हो गये, कामदेव होने से उनका रूप सोलह कलाओं से खिल उठा; भेदज्ञान की वीतरागी विद्या तो उनमें थी ही, पर आकाशगामिनी विद्या आदि अनेक पुण्य विद्यायें भी उनको सिद्ध हुईं। वे समस्त जिनशास्त्र के अभ्यास में निपुण हो गये; उनमें रत्नत्रय की परमप्रीति थी, देव- गुरु-शास्त्र की उपासना में वे सदा तत्पर रहते थे । • तुम झूठें कहलाओगे जिस वस्तु को तुमने देखा ही नहीं, फिर उसके ऊपर मुफ्त का झूठा आरोप क्यों लगाते हो ? यदि जीव को तुमने देखा होता तो वह तुम्हें चैतन्यस्वरूप ही दिखाई देता और वह जड़ की क्रिया का कर्त्ता है - ऐसा तू मानता ही नहीं, इसलिए तुम बिना देखे जीव के ऊपर अजीव के कर्तृत्व का मिथ्या आरोप मत लगाओ। यदि झूठा आरोप लगाओगे तो तुम्हें पाप लगेगा, तुम झूठे कहलाओगे।

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