Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७७ वे आत्मा के आनंद में झूल रहे थे। अहो ! आनंद में झूलते हुए मुनिवरों को देखकर मुझे उनके साथ रहने का मन हुआ, परन्तु ...." ( इतना कहकर हनुमान रुक गये।)
अंजना ने पूछा – बेटा हनुमान ! तुम बोलते-बोलते रुक क्यों गये। क्या बताऊँ ? माँ ! मुझे जिनदीक्षा की उत्तम भावना जागी , परन्तु हे माता ! तुम्हारे स्नेह के बंधन को मैं तोड़ न सका । तुम्हारे प्रति परम प्रेम के कारण मैं मुनि न हो सका । माता, सारे संसार के मोह को तो छोड़ने में मैं समर्थ हूँ, परन्तु एक तुम्हारे प्रति मोह नहीं छूटता, इसलिए महाव्रत को न लेकर मैंने मात्र अणुव्रत अंगीकार किया है ।
अंजना ने प्रसन्नता से कहा - अरे पुत्र ! तू अणुव्रतधारी श्रावक हुआ, यह भी महान आनंद की बात है । तुम्हारी उत्तम भावनाओं को देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है । मैं ऐसे महान धर्मात्मा और चरम-शरीरी मोक्षगामी पुत्र की माता हूँ, इसका मुझे गौरव है । अरे, वन में जन्मा मेरा पुत्र बाद में वनवासी होगा ही और आत्मा की परमात्मादशा को साधेगा। धन्य वह पुत्र !.... धन्य वह माता !! स्वानुभूति ही चेतन की माता !!!
कोई दरिद्री जीव स्वप्न में अपने को राजा मानता था, परन्तु नींद खुली तब उसे पता चला कि वह राजा नहीं है। उसीप्रकार मोहनिद्रा में सोता हुआ जीव बाह्य संयोगों में, विषयों में, राग में ही सुख मानता . है, वह तो स्वप्न के सुख जैसा मिथ्या है। जब भेदविज्ञान करके जागा, तब आभास हुआ कि अरे ! बाह्य में, राग में कहीं भी मुझे सुख नहीं, उसमें सुख माने वह तो भ्रम है, तभी एक क्षण में वह भ्रम दूर हुआ
और भान हुआ कि सच्चा सुख मेरी आत्मा में है, अनन्त ज्ञानी वही कहते हैं कि -
करोड़ वर्ष का स्वप्न भी, जागृत दशा में शान्त। वैसे अनादि का विभाव भी, ज्ञान होते ही शान्त ॥