Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग
-२/६५
वनवासी अंजना
(वन - गुफा में मुनिदर्शन का महान आनंद )
( संसार के अत्यंत दुःख प्रसंग में जब ऊपर आकाश और नीचे पाताल – जैसी परिस्थिति हो, तब भी जीव को धर्म और धर्मात्मा कितने अचिंत्य शरणरूप होते हैं - उसकी महिमा बताने वाला सती अंजना के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग )
बाईस वर्ष तक पति पवनंजय से बिछुड़ी हुई सती अंजना को, जिस समय सासु केतुमती ने कलंकनी समझकर क्रूरतापूर्वक राज्य से निकाल दिया और जिससमय पिता गृह में भी उसे आश्रय नहीं मिला, किसी ने भी से शरण नहीं दी, उस समय पूरे संसार से उदास हुई वह सती अपनी एक सखी के साथ वन की ओर चली गई ।
चलो सखी वहाँ चलें.. . जहाँ मुनियों का वास हो । अंजना कहती है – “हे सखी ! इस संसार में अपना कोई नहीं । श्री देव - गुरु-धर्म ही अपने सच्चे माता-पिता हैं। उनका ही सदा शरण है।"
वाघ से भयभीत हिरणी के समान अंजना अपनी सखी के साथ वन में जा रही है....वनवासी मुनिराजों को याद करती जा रही है, और चलते-चलते जब थक जाती है, तब बैठ जाती है । उसका दुःख देखकर सखी विचार करती है -
"हाय ! पूर्व के किस पाप के कारण यह राजपुत्री निर्दोष और गर्भवती होने पर भी महान कष्ट पा रही है। संसार में कौन रक्षा करे ? पति के घर जिसका अनादर हुआ.... . जो पिता उसे प्यार पूर्वक खिलाते थे, उन पिता के द्वारा भी जिसका अनादर हुआ इसकी माता भी इसे सहारा न दे सकी । सहोदर भाई भी ऐसे दुःख में कोई सहारा न दे सका। राजमहल में रहनेवाली अंजना इस समय घोर वन में भटक रही है।