Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 29
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२७ __ पर्वत के ऊपर जैसे वज्र गिरता है, वैसे ही वज्रबाहु के शब्दों को सुनते ही उदयसुंदर के ऊपर मानो वज्र गिर गया, वह तो डर ही गया। अरे....यह क्या हो गया ? वज्रबाहु तो प्रसन्नचित्त होकर विवाह के वस्त्राभूषण उतार कर वैराग्यपूर्वक मुनिराज की ओर जाने लगे। ___ मनोदया ने कहा- “अरे स्वामी ! यह आप क्या कर रहे हो ?" उदयसुंदर ने भी अश्रुभीनी आँखों से कहा- “अरे कुंवरजी ! मैं तो हँसते-हँसते मजाक में कह रहा था, लेकिन तुम यह क्या कर रहे हो ? मजाक करने में मेरी गलती हुई है, अत: मुझे क्षमा करो? आप दीक्षा मत लो......।" उसी समय वैरागी वज्रबाहु मधुर शब्दों में कहने लगे “हे उदयसुंदर ! तुम तो मेरे कल्याण के कारण बने हो। मुझे जागृत करके तुमने मुझ पर उपकार किया है। इसलिए दुःख छोड़ो। मैं तो संसाररूपी कुएँ में पड़ा था, उससे तुमने मुझे बचाया, तुम ही मेरे सच्चे मित्र हो और तुम भी इसी मार्ग पर मेरे साथ चलो।" वैरागी वज्रबाहु आगे कहने लगे- “जीव जन्म-मरण करते-करते अनादि से संसार में भ्रमण कर रहा है। जब स्वर्ग के दिव्य विषयों में भी कहीं सुख नहीं मिलता, तब अन्य विषयों की क्या बात ? अरे ! संसार, शरीर और भोग-ये सब क्षणभंगुर हैं। बिजली की चमक के समान जीवन मिलने पर भी यदि आत्महित न किया तो यह अवसर चला जावेगा। विवेकी पुरुषों को स्वप्न जैसे सांसारिक सुखों में मोहित होना योग्य नहीं है। हे मित्र ! तुम्हारी मजाक भी मेरे आत्मकल्याण का कारण बन गयी है। प्रसन्न होकर औषधि सेवन करने से क्या वह रोग नहीं हरती ? अपितु हरती ही है । तुमने हँसते-हँसते जिस मुनिदशा की बात की है, वह

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