Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/५४ यह हाथी इस समय ऐसे परम चैतन्य सुख का अनुभव कर रहा है। अब आत्मज्ञान प्राप्त कर मोक्षमार्ग में प्रवेश पा गया है...... इसका जीवन धन्य हो गया है...... यह धर्मात्मा है.... और भावी तीर्थंकर है।
लोगों को अपार प्रसन्नता हुई..... चारों ओर आश्चर्य और हर्ष का वातावरण बन गया। अनेक जीवों ने मुनिराजश्री की बात सुनकर और मेरी शान्तदशा देखकर चैतन्य की महिमा को समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त किया।
मैं शांत दृष्टि से मनुष्यों को देखकर क्षमा माँग रहा था और मन ही मन यह विचार कर कि “यह मुनिराज का उपकार है, इनके ही सत्संग का प्रताप है....., मेरा मन इनके प्रति कृतज्ञता से भर उठा।"
मुनिराज ने प्रसन्न होकर मुझे आशीर्वाद दिया।
बंधुओ ! यह हाथी कोई और नहीं अपने भगवान पारसनाथ का ही जीव है, पहले सिंह की फिर इस हाथी की कहानी सुनकर सत्समागम की महिमा का विचार करना । हाथी तिर्यंच-प्राणी, मुनिराज के क्षणभर के समागम से क्रोध शांत करके आत्मतत्त्व के परमार्थ स्वरूप को समझकर पशुपर्याय से भी परमात्मा बन जाता है। उस सत्समागम की कितनी महिमा ! जीवन में आत्महित करने के लिए सत्समागम (सत्संग) जैसा साधन कोई दूसरा नहीं है। कभी महाभाग्य से क्षणभर के लिए भी धर्मात्मा के सत्संग का सुयोग बन जावे तो प्रमाद (आलस) नहीं करना । सत्संग का महान लाभ लेकर आत्मकल्याण कर लेना।
फिर, उस हाथी का क्या हुआ ? अब यह सुनो
फिर, आत्मज्ञान प्राप्त हो जाने से उस हाथी को अतिशय वैराग्य हुआ.... तथा मुनिराज के समक्ष उसने श्रावकधर्म के पाँच अणुव्रत धारण
किये।