Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 54
________________ जैनधर्म की कहानियां भाग-२/५२ उपयोग क्रोध को तज कर क्षमा की ओर जाने लगा.... क्रोधरूपी पागलपन कहीं दूर चला गया था। श्री मुनिराज अपनी मधुर वाणी से मुझे संबोधित करते हुए कह रहे थे – “हे भव्य ! अब तुम्हारे भव दुःख का अन्त नजदीक आ गया है, आत्मज्ञान करके अपूर्व कल्याण करने का अवसर आ गया है.... तुम अन्त:वृत्ति के द्वारा चैतन्यतत्त्व को देखो...... उसकी अद्भुत सुन्दरता को देखकर तुम्हें अपूर्व आनंद होगा....। और अब सुनो ! अतिशय हर्ष की बात यह है कि इस भव में ही सम्यक्त्व प्राप्त कर, आत्मा की आराधना में आगे बढ़ते-बढ़ते आठवें भव में तुम भरतक्षेत्र की चौबीसी में तेईसवें त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ होओगे..... अब तुम्हारे मात्र सात भव शेष हैं...... और वे भी सब भव आत्मा की आराधना से सहित हैं.....।" श्री मुनिराज से अपने भव के अन्त की बात सुनकर मुझे अपार प्रसन्नता हुई.... और तभी से अन्तरंग में चैतन्यतत्त्व के परम-आनंद का स्वाद चखने के लिए बारम्बार मेरा मन करने लगा। “ऐसे वीतरागी संत का मुझे समागम मिला है"- इसलिए मुझे इसीसमय कषाय से भिन्न शांत

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