Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/५१
अहा ! मुनिराज मुझे अत्यंत मधुर रस पिला रहे थे..... मैं मुग्ध होकर उनकी ओर देखता रहा..... इतने में मेरी नजर उनकी छाती के श्री वत्स चिह्न के ऊपर पड़ी..... मेरे अन्तर में स्मृति जागी.... अरे, इन्हें तो मैंने पहले भी कभी देखा है ! ये कौन हैं ? ये तो मेरे राजा अरविंद है, अहा!
राजपाट छोड़कर मुनिदशा में वीतरागता से कैसे सुशोभित हो रहे हैं !! इनके पास मुझे कितनी शांति मिल रही है ! अहो, इन मुनिराज की निकटता प्राप्त करने से मैं क्रोध के घोर दुःख से छूट गया..... और ये मुझे मेरा शान्त तत्त्व बता रहे हैं।
ऐसा विचार करके मैं विनय से सूँड नवाकर श्री मुनिराज के सन्मुख खड़ा रहा... लोगों का और मेरा - दोनों का महा उपद्रव शांत हुआ, मेरे आँखों से अश्रुधारा बहने लगी ।
मुनिराज ने मेरी सूँड पर हाथ रखकर प्रेम से कहा" वत्स ! तू शांत हो ! मैं अरविंद राजा मुनि हुआ हूँ और तू इससे पहले के भव में मेरे मंत्री का पुत्र ( मरुभूति ) था.... उसे याद कर !
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यह सुनते ही मुझे मेरे पूर्वभव की याद आयी, जातिस्मरण हुआ वैराग्य से मेरे परिणाम विशुद्ध होने लगे.... ।
श्री मुनिराज ने कहा – “हे भव्य ! पूर्वभव में तुम्हारे सगे भाई ने ही तुझे मारा था.... ऐसे संसार से अपने चित्त को तू विरक्त कर.... क्रोधादि परिणामों को छोड़कर शांत चित्त से अपने आत्मतत्त्व का विचार कर.... तू कौन है ? तू हाथी नहीं, तू क्रोध नहीं, शरीर और क्रोध दोनों से भिन्न तू तो चेतनस्वरूप है... अरे ! अपने चैतन्यस्वरूप को तू समझ...।”
श्री मुनिराज की मधुर वाणी मेरी आत्मा को जागृत करने लगी.... मुनिराज की वीतरागी शांति को देखकर मैं मुग्ध हो गया, कितने निर्भय, कितने शांत ! कितने दयालु ! मेरे क्रोध की अशांति और मुनिराज की चेतना में रहनेवाली शांति इन दोनों के महान अन्तर का ज्ञान होते ही मेरा