Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 52
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/५० एक बार एक महान संघ सम्मेदशिखरजी तीर्थ की यात्रा करने जा रहा था, हजारों मनुष्यों की भीड़ थी। हमारे राजा अरविंद - जो मुनि हो गये थे। वे मुनिराज भी इस संघ के साथ ही थे..... लेकिन पहले मुझे इस बात की खबर नहीं थी। ___ उस महान संघ ने मेरे वन में पडाव डाला..... मेरे वन में इस संघ का कोलाहल मुझसे सहन नहीं हुआ... क्रोध से पागल होकर मैं दौड़ने लगा और जैसे ही कोई मेरे चंगुल में आया, उसको मैं कुचलने लगा..... कितने ही मनुष्यों को सूंड से पकड़कर ऊँचा उछाला, कितने ही को पैर के नीचे कुचल डाला..... रथ, घोड़ा वगैरह भी तोड़-फोड़ दिये। संघ में चारों ओर हा-हाकार और भगदड़ मच गई। क्रोध के आवेग में दौड़ते-दौड़ते मैं एक वृक्ष के पास आया..... वृक्ष के नीचे एक मुनिराज बैठे थे.... उन्होंने अत्यंत शांत-मधुर मीठी नजरों से मेरी ओर देखा.... हाथ ऊँचा करके वे मुझे आशीर्वाद दे रहे थे... अथवा मानो आदेश दे रहे थे कि “रुक जा"। मुनिराज को देखते ही अचानक क्या हुआ कि मैं स्तब्ध रह गया। क्रोध को मैं भूल गया..... मुनिराज सामने ही देख रहे थे..... मुझे बहुत अच्छा लगा... जैसे वे मेरे कोई परिचित हों - इसप्रकार मुझे प्रेम भाव जाग गया। अहा, मुनिराज के सान्निध्य से क्षणमात्र में मेरे परिणाम चमत्कारिक ढंग से पलट गये.... क्रोध के स्थान पर शांति मिल गई। मैं टकटकी लगाकर देख रहा था.... वहाँ मुनिराज करुणादृष्टि से मुझे संबोधते हुए बोले - “हे गजराज ! हे मरुभूति ! तू शांत हो ! तुझे क्रूरता शोभा नहीं देती.... पूर्वभव में तू मरुभूति था और अब भरत क्षेत्र का तेईसवाँ तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ होगा। तुम्हारी महान आत्मा इस क्रोध से भिन्न, अत्यंत शांत चैतन्य स्वरूप है..... उसे तू जान !"

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