Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 39
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/३७ “मुनिवर ! क्षमा करो.....प्रभो ! मैंने आपको पहचाना नहीं। मैं अब इस संसार के बंधन से मुक्त होना चाहता हूँ......।" श्री कीर्तिधर मुनिराज बोले- “हे वत्स! इस संसार में सब संयोग क्षणभंगुर हैं। उसके भरोसे क्या रहना? यह सारभूत आत्म तत्त्व ही आनंद से भरपूर है, उसकी साधना के बिना अन्य कोई शरण नहीं........" इसप्रकार श्री कीर्तिधर महाराज ने वैराग्य से भरपूर धर्मोपदेश दिया। धर्मपिता महाराज कीर्तिधर से उपदेश सुनकर राजकुमार सुकौशल का हृदय बहुत तृप्त हुआ....ऐसे असार-संसार से उनका मन विरक्त हो गया... और तब शांतचित्त से विनयपूर्वक हाथ जोडकर प्रार्थना की “प्रभो ! मुझे भी जिनदीक्षा देकर अपने जैसे बना लीजिये, मैं तो मोहनिद्रा में सो रहा था, आपने मुझे जगाया.....आप जिस मोक्षसाम्राज्य की साधना कर रहे हो ....मुझे भी वैसा ही मोक्ष-साम्राज्य चाहिये। और वह राजकुमार उसी समय दीक्षा लेने तैयार हो गया। इसी समय वहाँ राजमाता सहदेवी और राजकुमार सुकौशल की गर्भवती रानी विचित्रमाला, उनके मंत्री आदि सभी वहाँ आ पहुँचे....। ____ उन्होंने राजकुमार से कहा – “हे राजकुमार ! भले ही तुम दीक्षा ले लो.....हम नहीं रोकेंगे। लेकिन तुम्हारे वंश में ऐसा रिवाज है कि पुत्र बड़ा होने पर, उसे राज्य सौंपकर राजा दीक्षा लेता है.... इसलिए आप भी रानी विचित्रमाला के बालक को बड़ा हो जाने दें, तब उसे राज्य सौंपकर फिर दीक्षा ले लेना....." -- राजकुमार ने कहा- “जब वैराग्यदशा जागी, तब उसे संसार का

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