Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२८.. मुनिदशा भवरोग को हरनेवाली और आत्मकल्याण करनेवाली है, इसलिए मैं अवश्य ही मुनिदशा अंगीकार करूँगा और तुम्हारी जैसी इच्छा हो, तुम वैसा करो।" उदयसुंदर समझ गया कि अब वज्रबाहु को रोकना मुश्किल है....अब वह दीक्षा लेंगे ही, फिर भी शायद मनोदया का प्रेम उन्हें रोक लें - ऐसा सोचकर उसने अन्तिम बात कही “कुमार ! आप मनोदया की खातिर ही रुक जाओ। तुम्हारे बिना मेरी बहन अनाथ हो जायेगी। इसलिए उसके ऊपर कृपा करके आप रुक जाइये, आप दीक्षा मत लीजिए।" परन्तु, मनोदया भी वीरपुत्री थी.... वह रोने नहीं बैठी.... बल्कि उसने तो प्रसन्नचित होकर कहा- 'हे बन्धु ! तुम मेरी चिंता मत करो। वे जिस मार्ग पर जा रहे हैं, मैं भी उस ही मार्ग पर जाऊँगी। वे विषय-भोगों से छूटकर आत्मकल्याण करेंगे, तो क्या मैं विषयों में डूबकर मरूँगी ? नहीं, मैं भी उनके साथ ही गृहस्थदशा छोड़कर अर्जिका की दीक्षा लूँगी और आत्म-कल्याण करूँगी। धन्य है मेरा भाग्य !! अरे ! मुझे भी आत्महित करने का सुंदर अवसर मिला। रोको मत भाई! तुम किसी को भी मत रोको ! कल्याण के मार्ग में जाने दो और संसार के मार्ग में मत फँसाओ ! तुम भी हमारे साथ उस ही मार्ग में आ जाओ।" अपनी बहिन की दृढता को देखकर, अब उदयसुंदर के भावों में भी एकाएक परिवर्तन हो गया। उसने देखा कि मजाक सत्यता का रूप ले रहा है। अत: उसने कहा वाह....वज्रबाहु ! और वाह.....मनोदया बहिन ! धन्य हैं तुम्हारी उत्तम भावनाओं को ? तुम दोनों यहाँ दीक्षा लोगे तो क्या मैं तुम्हें छोड़कर राज्य में जाऊँगा ? नहीं, मैं भी तुम्हारे साथ मुनिदीक्षा लूँगा।"

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