Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 20
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/१८ होता ही है। संसार में कर्मरूपी शत्रु द्वारा जीव की ऐसी दशा होती है, इसलिए आत्मध्यानरूपी अग्नि के द्वारा उस कर्म को भस्म करके अपने अविनाशी मोक्षपद को प्रकट करो। हे राजन् ! तुम भी इस संसार के मोह को छोड़कर मोक्ष साधने के लिए उद्यम करो। " मुनिवेश में स्थित अपने मित्र मणिकेतु देव की वैराग्यभरी बात सुनकर सगर-चक्रवर्ती संसार से भयभीत तो हुआ, परंतु ६० हजार पुत्रों तीव्र स्नेह से वह मुनिदशा नहीं ले सका । अरे, स्नेह का बंधन कितना मजबूत है। राजा के इस मोह को देखकर मणिकेतु को खेद हुआ और “अब भी इसका मोह बाकी है" - ऐसा विचार कर वह पुनः चलां गया । अरे, देखो तो जरा ! इस साम्राज्य की तुच्छ लक्ष्मी के वश चक्रवर्ती पूर्वभव के अच्युत स्वर्ग की लक्ष्मी को भी भूल गया है। उस स्वर्ग की विभूति के सामने इस राज्य - संपदा का क्या मूल्य है कि जिसके मोह में जीव फँसा है; परन्तु मोही जीव को अच्छे-बुरे का विवेक नहीं रहता । यह चक्रवर्ती तो आत्मज्ञानी होने पर भी पुत्रों में मोहित हुआ है, पुत्रों के प्रेम में वह ऐसा मोहित हो रहा है कि मोक्ष के उद्यम भी प्रमादी हो गया है । उस चक्रवर्ती के सिंह के बच्चों समान शूरवीर और प्रतापवंत राजपुत्र एक बार राजसभा में आये और विनयपूर्वक कहने लगे- “हे पिताजी ! जवानी में शोभे- ऐसा कोई साहस का काम हमें बताइये उस समय चक्रवर्ती ने प्रसन्न होकर कहा - " हे पुत्रो ! चक्र के द्वारा अपने सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हिमवन पर्वत और लवण समुद्र के बीच (छह खण्ड में) ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसे हम प्राप्त न कर सकें। इसलिए तुम्हारे लिये तो अब एक ही काम शेष है कि तुम इस राज्यलक्ष्मी का यथायोग्य भोग करो । " शुद्ध भावनावाले उन राजपुत्रों ने पुनः आग्रह किया

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