Book Title: Jain Darshan Praveshak
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan
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जैनदर्शनप्रवेशकः एवं सत्तविअप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए पुण सविअप्पो निव्विअप्पो अ ॥४१॥ जह दविअमप्पिअं तं तहेव अत्थि त्ति पज्जवनयस्स । न य समयपन्नवणा पज्जवनयमेत्तपडिपुण्णा ॥४२॥ पडिपुण्णजोव्वणगुणो जह लज्जइ बालभावचरिएहिं । कुणइ अ गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणत्थं ॥४३॥ ण य होइ जोव्वणत्थो बालो अन्नो वि लज्जइ न तेण । न वि अ अणागयवयगुणपसाहणं जुज्झइ विभत्ते ॥४४॥ जाइकुलरूवलक्खणसन्नासंबंधओ अहिगयस्स । बालाइभावदिट्ठविगयस्स जह तस्स संबंधो ॥४५॥ तेहिं अइआणागयदोसगुणदुगंछणऽब्भुवगमेहिं । तह बंधमोक्खसुहदुक्खपत्थणा होइ जीवस्स ॥४६॥ अन्नोन्नाणुगयाणं इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्धपाणिआणं जावंत विसेसपज्जाया ॥४७॥ रूवाइपज्जवा जे देहे जीवदविअम्मि सुद्धम्मि । ते अन्नोन्नाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ॥४८॥ एवं एगे आया एगे दंडो अ होइ किरिआ य । करणविसेसेण य तिविहजोगसिद्धी उ अविरुद्धा ॥४९॥ न य बाहिरओ भावो अभितरओ अ अत्थि समयम्मि । नोइंदिअं पुण पडुच्च होइ अभितरो भावो ॥५०॥ दव्वट्ठिअस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ । बिइअस्स भावमेत्तं न कुणइ नय को वि वेएइ ॥५१॥

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