Book Title: Jain Darshan Praveshak
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan

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Page 52
________________ सम्मतिसूत्रम् दव्वट्ठिअस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेअई निअम । अन्नो करेइ अन्नो परिभुंजइ पज्जवनयस्स ॥५२॥ जं वयणिज्जविअप्पा संजुज्जंतेसु होंति एएसु । सा ससमयपण्णवणा तित्थयरासायणा अन्ना ॥५३॥ पुरिसज्जायं तु पडुच्च जाणओ पण्णवेज्ज अण्णयरं । परिकम्मणानिमित्तं दाएही सो विसेसं पि ॥ ५४ ॥ ॥ जीवकंडम् ॥ जं सामन्नग्गहणं दंसणमेअं विसेसिअं नाणं । दोह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ॥५५॥ दव्वट्ठिओ वि होउण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ । उवसमिआईभावं पडिच्च नाणे उ विवरीअं ॥ ५६ ॥ मणपज्जवणाणतो नाणस्स य दंसणस्स य विसेसो । केवलनाणं पुण दंसणं ति नाणं ति अ समाणं ॥५७॥ केई भांति जइआ जाणइ तइआ ण पासइ जिणो त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥५८॥ केवलनाणावरणक्खयजायं केवलं जहा नाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ निअआवरणक्खयस्संते ॥५९॥ भन्नइ खीणावरणे जह मइनाणं जिणे न संभवइ । तह खीणावर णिज्जे विसेसओ दंसणं नत्थि ॥६०॥ सुत्तम्मि चेव साई अपज्जवसिअं ति केवलं भणिअं । सुत्तासयणभीरूहिं तं पि दट्ठव्वियं होइ ॥ ६१ ॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि नाणस्स संभवो नत्थि । केवलनाणम्मि अ दंसणस्स तम्हा सनिहाई ॥६२॥ ४३

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