Book Title: Jain Darshan Praveshak
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan
View full book text
________________
४९
सम्मतिसूत्रम्
जुज्जइ संबंधवसा संबंधविसेसणं न पुण एअं । नयणाइविसेसगओ रूवाइविसेसपरिणामो ॥११८॥ भन्नइ विसमपरिणयं कह एअं होहिइ त्ति उवणीअं । तं होइ परनिमित्तं न व त्ति एत्थऽत्थि एगंतो ॥११९॥ दव्वस्स ठिई जम्म विगमा य गुणलक्खणं तु वत्तव्वं । एअं सइ केवलिणो जुज्जइ तं नो उ दविअस्स ॥१२०।। दव्वत्थंतरभूआ मुत्ताऽमुत्ता व ते गुणा होज्जा । जइ मुत्ता परमाणू नत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥१२१॥ सीसमईवित्थारणणिमित्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो । इहरा कहामुहं चेव नत्थि एवं ससमयम्मि ॥१२२॥ न वि अत्थि अन्नवाओ न वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि । तं चेव य मन्नंता अवमण्णंता न याणंति ॥१२३॥ भयणा वि हु भइअव्वा जह भयणा भयइ सव्वदव्वाइं । एवं भयणानिअमो अ होइ समयाविरोहेणं ॥१२४॥ निअमेण सद्दहंतो छक्काए भावओ न सद्दहइ । हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥१२५।। गइपरिणयं गई चेव केइ निअमेण दविअमिच्छंति । तं पि अ उड्डगईअंतहा गई अन्नहा अगई ॥१२६॥ गुणनिव्वत्तियसन्ना एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा । जं तु तहा पडिसिद्धं दव्वमदव्वं तहा होइ ॥१२७॥ कुंभो न जीवदविअं जीवो वि न होइ कुंभदविअं ति । तम्हा दो वि अदविअं अन्नोन्नविसेसिआ होंति ॥१२८।।

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80