Book Title: Jain Darshan Praveshak
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan
View full book text
________________
सम्मतिसूत्रम्
दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ अ हेउवाओ अ । तत्थ उ अहेउवाओ भविआभविआदओ भावा ॥१४०॥ भविओ सम्मद्दंसणनाणचरित्तपडिवत्तिसंपन्नो । निअमा दुक्खंतविअत्तिलक्खणं हेउवायस्स ॥ १४१ ॥ जो हेउवापक्खम्मि हेउओ आगमे अ आगमिओ । सो समय पण्णत्तो सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥१४२॥ परिसुद्धो नयवाओ आगममेत्तत्थसाहओ भणिओ । सो चेव दुन्नयिणो दोणि वि पक्खे विहम्मे वि ॥१४३॥ जावइआ वयणपहा तावइआ चेव हुंति नयवाया । जावइआ नयवाया तावइया चेव परसमया ॥ १४४ ॥ जं काविलं दरिसणं एयं दव्वट्ठिअस्स वत्तव्वं । सुद्धोअणतणयस्स उ परिसुद्धो पज्जवविगप्पो ॥ १४५ ॥ दोहिं वि नएहिं नीअं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं । जं सविसयपहाणत्तणेण अन्नोन्ननिरविक्खा ॥१४६॥
५१
जे संतवायदोसे सक्कोलुआ वयंति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥ १४७॥ ते उ भयणोवणीआ सम्मद्दंसणमणुत्तरं होंति । जं भवदुक्खविमुक्खं दो वि न पूरंति पाडिक्कं ॥१४८॥
नत्थि पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति जं तेण जुज्जइ अन्नो । जं सुपुण घडो त्ति पुव्वं न आसि पुढवी तओ अन्नो ॥१४९॥ कालो सहावनिअओ (ई) पुव्वगयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं तं चेव उ समासओ होंति सम्मत्तं ॥ १५० ॥

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80