Book Title: Jain Darshan Praveshak
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan

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Page 53
________________ ४४ जैनदर्शनप्रवेशकः दंसणनाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वयरं । होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुवे नत्थि उवओगा ॥६३|| जइ सव्वं सायारं जाणइ सव्वसमएण सव्वन्नू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सव्वं न याणाइ ॥६४॥ परिसुद्धं सागारं अविअत्तं दंसणं अणागारं । न य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सविअत्तमविअत्तं ॥६५।। अद्दिटुं अन्नायं केवली एव भासइ सया वि । एगसमएण हंदी वयणविअप्पो न संभवइ ॥६६॥ अन्नायं पासंतो अदिटुं च अरहा विआणतो । किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ॥६७॥ केवलनाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं । सागारग्गहणाहि अ निअमपरित्तं अणागारं ॥६८॥ भण्णइ जह चउनाणी जुज्जइ निअमा तहेव एअं पि । भण्णइ न पंचनाणी जहेव अरहा तहेअं पि ॥६९।। पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुअनाणदंसणा विसओ । ओहिमणपज्जवाण उ अन्नोन्नविलक्खणो विसओ ॥७०|| तम्हा चउविभागो जुज्जइ न उ नाणदंसणजिणाणं । सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं नाणं ॥७१॥ परवत्तव्वयपक्खा अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु । अत्थगई य उ तेसि विअंजणं जाणओ कुणई ॥७२॥ जेण मणोविसयगयाण दंसणं नत्थि दव्वजायाणं । तो मणपज्जवनाणं निअमा नाणं तु निद्दिटुं ।।७३।।

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