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जैन-दर्शन मनुष्यों के समान राज्य, भोग, युद्ध, दंड आदि समस्त कार्य करते हैं। ऐसे कल्पित देवोंको मानना देव मूढता है । जो मनुष्य स्वयं राज्य वा भोगों में लगा हुआ है वह. सामान्य राजाओं के समान जीवों का.पारमार्थिक कल्याण नहीं कर सकता । यह निश्चित सिद्धांत है कि जिस मनुष्यने ध्यान तपश्चरण के द्वारा अपने आत्मा का कल्याण कर लिया है वही पुरुषोतम अन्य जीवों का कल्याण कर सकता है, वही मोक्षगार्ग को यथार्थ स्वरूप बता सकता है। जो कल्पित देव स्वयं भोगों में फंसा है वह अन्य जीवों का कल्याण कभी नहीं कर सकता। यही समझकर सम्यग्दृष्टी जीव कल्पित देवों काः सर्वथा त्याग कर भगवान् जिनेन्द्र देवको ही देव मानता है उन्हों की भक्ति पूजा करता है, अन्य किसी भी कल्पित या मिथ्या देवकी पूजा भक्ति नहीं करता । यह देव मूहता का त्याग सम्यग्दर्शनका सत्रहवां गुण कहलाता है । ... दूसरी मूढता का नाम गुरु मूडता है। गुरु शब्द का अर्थ यहां पर धर्म गुरु है। धर्मका उपदेश देने वाला धर्म गुरु होता है। धर्म गुरु विषयों की लालसाओं से सर्वथा रहित होता है। सम्यग्दर्शन के प्रभावसे वह आत्मा और संसार का यथार्थ स्वरूप समझकर समस्त पापों, परिग्रहों और समस्त इच्छाओं का त्याग कर देता है। वह दिगम्बर अवस्था धारण कर बन में जाकर तपश्चरण करने में लीन हो जाता है रसोई बनाना, खेतीबाड़ी व्यापार आदि किसी प्रकारका आरंभ नहीं करता, तिल तुप मात्र भी परिग्रह नहीं रखता और आत्मज्ञान वा ध्यान में लीन रहता है। इस प्रकार अपने