Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 232
________________ [ २२२ जैन दर्शन जाति में नहीं है । जो कोई दूसरी जाति में विवाह संबंध करता है वह धरेजा के समान माना जाता है। हां धर्म प्रत्येक आत्माका स्वभाव है उसको प्रत्येक जातिका मनुष्य धारण कर सकता है अपनी जाति व्यवस्था के अनुसार उस धर्म की क्रियाओं का पालन कर सकता है। 1 वर्ण व्यवस्था जिस प्रकार जातिव्यवस्था श्रनादि है उसी प्रकार वरणव्यवस्था भी अनादि है | विदेह क्षेत्रों की कर्म भूमियों में चनादि काल से जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था अनुरण रूप से चली श्रा रही है और अनंतकाल तक बराबर श्रनुरण रूप से चलती रहेगी। इसका कारण यह है कि विदेह क्षेत्रों में कभी भी काल परिवर्तन नहीं होता । वहां जहां पर जैसी भोगभूमि है वहां पर काल वैसी ही भोगभूमि रहती है और जहां पर कर्मभूमि हें वहां पर सतत कर्मभूमि ही रहती है। काल परिवर्तन केवल भरत और ऐरावत क्षेत्रों में हो होता है । हैमवत क्षेत्र, हरक्षेत्र, विदेह क्षेत्र, रम्यक् क्षेत्र और हैरण्यवत क्षेत्रों में काल परिवर्तन नहीं होता । भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जो कांल परिवर्तन होता है वह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप से होता है । जिसमें आयु काय श्रादि वृद्धि को प्राप्त होता रहे उसको उत्सर्पिणी कहते हैं तथा जिसमें आयु काय घटता रहे उसको अवसर्पिणी कहते हैं ।

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