Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 268
________________ - २५] जैन-दर्शन सामर्थ्य न हो तो अपनी शुद्धि कर भोजनशाला से दूर बैठकर और अपने शरीरको ढककर नीरस शुद्ध भोजन करनी चाहिये । तथा एकांतमें शुद्धिकर धुली हुई धोती पहिनकर मौन पूर्वक नीरस आहार से एकाशन करना चाहिये । जुल्लिका वा अर्जिकात्रों को रजःस्वला अवस्थामें तीनों दिन अत्यंत शांत भाव के साथ प्रसन्न मनसे निकालने चाहिये और चौथे दिन दो पहर के समय शुद्ध जलसे स्नान करना चाहिये । उस समय उस क्षुल्लिका वा अर्जिकाको वन सहित सर्वांग स्नान करना चाहिये तथा आचमन भी करना चाहिये । गृहस्थ अवस्थामें रहने वालो रजःस्वला स्त्रियों को भी तीनों दिन इसी प्रकार व्यतीत करने चाहिये । उस गृहस्थ रजःस्वला स्त्री को चौथे दिन वन सहित सर्वांग स्नान करना चहिये तथा आचमन कर गर्म जलसे वा शुद्ध छने जल से स्नान करना चाहिये । स्नान करने के अनंतर उसे प्रसन्न चित्त होकर अपने पतिका दर्शन करना चाहिये, अपने हृदय में पतिका ही चिंतन करना चाहिये । यह उसको एक व्रत समझना चाहिये । चौथे दिन स्नान करने के अनंतर वह स्त्री पति के लिये शुद्ध मानी जाती है तथा पांत के लिये भोजन बना सकती है। परंतु देव-पूजा, पाव-दान और होम क्रियो आदि कार्यों के लिये वह पांचवें दिन शुद्ध मानी जाती है। चौथे दिन स्नान करते समय उस स्त्रीको अपने वस्त्र कंवल शय्या आदि सबको शुद्ध जल से धो डालना चाहिये और अपने खाने पीने के मिट्टी के बर्तनों को घर के बाहर फेकदेना चाहिये। यदि उसने पीतल के बर्तन में भोजन किया हो तो उसको मांजकर अग्नि

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