Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 251
________________ जैन दर्शन स्थिर रहना विरुद्ध ही है । क्योंकि कोई वायु सर्वथा. विशेष रूप से ही रहती है अर्थात् चलती फिरती नहीं यह बात असंभव है। इससे सिद्ध होता है पृथ्वी परिभ्रमण नहीं करती और इसीलिये उसपर जलादिक स्थिर है। .. आगे भू भ्रमण वादी जैनियों को स्थिर भूमि के लिये शंका करता है और उसीके कथनानुसार उसको : निरसन किया जाता है। ..... .. :: . . . . . । वादो कहता है कि संसार में जितने भारो पदार्थ हैं वे सब सामने की ओर ही गिरते हैं । समुद्रादिक का पानी भी सामने की ओर ही उसी.पृथ्वीपर पड़ता है इसलिये वह स्थिर रहने के समान ही जान पडता है । परन्तु उसका यह कहना पतन दृष्टिसे वाधित ही सिद्ध होता है उसी को आगे. स्पष्ट रूप से दिखलाते हैं। गोल पृथ्वी भ्रमण भी करती है और भूगोल भ्रमण के कारण गिरता हुआ समुद्रादिका का जल भी स्थिर. के समान. जान पडता है। क्योंकि वह सामने की ओर · उसी पृथ्वी पर पड़ता है। संसार में जितने भारी. पदार्थ हैं वे सब सामने की ओर ही पड़ते हैं। प्रतिकूल दिशा में नहीं पड़ते क्योंकि प्रतिकूल: दिशा में भारी पदार्थों का पडना कहीं नहीं देखा जाता । इस प्रकार भू भ्रमण वांदी कहता है। परन्तु उसको यह कहना युक्तिः संगत नहीं है क्योंकि संसार में जितने भारी पदार्थ हैं . सर्व नीचे की ओर ही पडते हैं जिस प्रकार कोई मिट्टी का ढेलाया: पत्थर को टुकड़

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