Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 239
________________ जैन-दर्शन २२६] समय पारलौकिक कार्य करना चाहिये, यही दिन चर्या कहने का अभिप्राय है। अव प्रातः काल से श्रावकों की दिन चर्या बतलाते हैं । यह दिन चर्या धर्मामृत श्रावकाचार से लिखी जा रही है। हत कहते हैं । को को ब्राह्म मुह मेरा धर्म जिस समय की देवता ब्राह्मी वा सरस्वतो है उसको ब्राह्म . . मुहूर्त कहते हैं । यह प्रातः काल के दो घडी पहले से प्रातः काल तक रहता है। श्रावकों को ब्राह्म मुहूते में उठकर णमोकार मन्त्र का पाठ पढना चाहिये । फिर मैं कौन हूं, मेरा धर्म क्या है और मेरे पास कौन कौन व्रत हैं आदि चितवन करना चाहिये । तदनन्तर अनादि कालसे परिभ्रमण करते हुए जीवको यह भगवान अरहंत देव का धर्म और श्रावक व्रत वड़ी कठिनता से प्राप्त हुए हैं अतएव प्रमाद राहत होकर इनका पालन करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर शौच आदि से निवृत होना चाहिये । फिर भगवान का ध्यान कर दिन भर के लिये विशेष नियम धारण करने चाहिये। तदनन्तर समता धारण कर भगवान की आकृति का चितवन करते हुए उस श्रावक को जिनालय में जाना चाहिये । अपनी विभूति के अनुसार देव शास्त्र गुरु की पूजा की समस्त सामग्री लेकर तथा भगवान अरंहंत देवकी ज्ञान रूप ज्योति का चितवन करते हुए श्रीवक को आगे की चार हाथ भूमि को देखते हुए जिनालय को जाना चाहिये और वहां पर शिखर के अपर

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