Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 240
________________ [.. मदरनी हुई ध्वना को देख कर परम आनन्द मानना चाहिये । जिनालय में वजन हम बाजों ने, पुन श्रादि की सुगंथि में अन साह को वहांत हुए श्रावक को निःनही शब्द का उच्चारण करते हु जिनालय में प्रवेश करना चाहिये । चिन र बोचर निनही शब्द का उच्चारण करते हुए जिनालय के मध्यमाग में जाना चाहिये और तिज भगवान श्री नान प्रदक्षिणा देकर तीनवार नमन्कार कर भगवान की न्तुति करनी चाहिये, तथा चितवन करना चाहिये किजिनालय नमवसरण की भूमि है और ये वेदी में विराजमान सानात अरहंत देव है तथा ये मुनि श्रावक श्रादि बारह समाओं के समासद है इस प्रकार चितवन कर वहां पर दर्शन पूजन करने वाले भव्य जनों की अनुमोदना करनी चाहिये। नदनन्तर योग्य गुद्धि प्रतिक्रमण कर अनुक्रम से देव शन्त्र गुन की पूजा करनी चाहिये । तिश्राचार्य महाराज के समीप जाकर ऋचना त्याग या नियन निवेदन करना चाहिये । नहानन्तर मुनियों को नोन्तु, नवाईयों से वंदना, नायर्मियों से इच्छाचार, अजिंकायों में वंदना और पात्रों से जुहान कहना चाहिये। मुनिराज बदले में श्रावकों को बढि कहकर श्र.शीर्वाद देते हैं, अन्य लोगों का वर्न लाम हो' कहकर श्राशीद देन है,चारी पुख्य-युद्ध अथवा दर्शनविशुद्धि कहते हैं। पायक परन्या इच्छाचार ऋग्त है. तथा लौकिक व्यवहार में जुट्टान कहना ___ * मुबी पट्टछ प्रत्येक अवक की पूजा ने पक न्याय में यानी ऋषि श्रीकि काल में कराया नि मारमा अग्नी दिद।

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