Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 234
________________ [२२४ जन-दर इन तीनों में कर्मभूांग रहती है। दुःपमा मुपमा कालक प्रारंभ धुलकर होते हैं ये मोज मार्ग की व्यवस्था करते हैं। नीय५. चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण बलदेव यादि शलाका पुरुय इस काल में होते हैं । यथावत मोजमार्ग चलता है। इसके अनंत अनुक्रम से सुपमा दुःपमा, सुपना और गुपमा सुपमा काल यात है इन तीनों काल में उपर लिखे अनुसार जघन्य मध्यम श्रीर उत्तम भोग भूमि को रचना रहती है । इसके अनंतर फिर अब. पिणी काल की उत्तम मध्यम जघन्य भागभूमि की रचना होकर दुःपमा मुपमा काल पाता है इसमें ऊपर लिम्व अनुसार कुलकर तीर्थकर चक्रवर्ती श्रादि महा पुरुष उत्पन्न होते हैं। एनमें से मुषमा मुपमा काल चार कोड़ा कोटो सागर का है, सुपमा काल तीन कोटा कोटी सागर का है मुपमा दुःपमा दा कोटा कोटी सागर का है दुःपमा मुपमा व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटा कोढी सागर का है दुःपमा इकईस हजार वर्ष का और दुःपमा दुःपमा इकईस हजार वर्ष का है । दस प्रकार दश कोहा कोडो सागर का अवसर्पिणी काल है और इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल भी दश कोढा कोडी सागर का है। अब यहां पर इतना समझना अत्यन्त आवश्यक है कि उत्सपिणी काल के तीसरे दुःपमा सुपमा कालकी कर्मभूमि में जो वर्ण व्यवस्था तथा जाति-व्यवस्था थी उन्हीं सब जातियों और उन्दी सब वणों को संतान दर संतान रूपसे सुपमा दु.पमा नामकी जघन्य भोगममि में मनुप्य उत्पन्न हुए थे, तथा जघन्य भोगमि के

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