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जीवों को भी
जैन-दर्शन
करते हैं । तथा ऐसे जीव अन्य जीवों को भी कल्याण मागे में लगाते हैं। इसीलिये देव, धर्म, गुरु और इन तीनों को माननेवाले धर्मायतन कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टी पुरुप इन्हीं को धर्मायतन मानता है। इनके सिवाय अन्य समस्त देवोंको, अन्य समस्त धर्मोको, अन्य समस्त भेपी गुरुओं को तथा इनको मानने वालों को धर्मायतन कभी नहीं मानता । वह इन सवको धर्मका अनायतन मानता है। वह समझता है कि श्री जिनेन्द्र देव के सिवाय अन्य समस्त देव संसार मार्ग की पुष्टि करने वाले हैं। क्योंकि वे स्वयं हम लोगों के समान संसारी हैं । इसी प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देवके द्वारा निरूपण किये हुए रत्नत्रय रूप धर्म या अहिंसा रूप धर्म के सिवाय अन्य जितने धर्म में वे सब हिंसा-स्वरूप होने से पाप मार्ग के वढाने वाले हैं । वीतराग निग्रंथ (परिग्रह रहित) गुरुके सिवाय अन्य सब भेषधारी संसार में डुबोने वाले हैं तथा इसी प्रकार उनके मानने वाले उन्हीं के समान पाप मार्ग को बढाने वाले और संसार में डुवाने वाले हैं । यही समझकर वह सम्यग्दृष्टी पुरुष इन छहों अनायतनों का सर्वथा त्याग कर देता है । और फिर जिनेन्द्र देव, उनका कहा हुआ धर्म और वीतराग निग्रंथ गुरुकी ही पूजा भक्ति करता है तथा उनको मानने वालों में धार्मिक अनुराग रखता है। ये ही छह सम्यग्दर्शन के गुण कहलाते हैं।
इस प्रकार आठों अंगों का पालन करना, आठों मदोंका त्याग करना, तीन मूढताओं का त्याग करना और छहों अनायतनों का त्याग करना, ये पच्चीस सम्यग्दर्शन के गुण कहलाते हैं। इनके