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जेन-दर्शनवना है। इसमें हड्डी, मांस रुधिर, मजा, विष्टा आदि अनेक अशुद्ध पदार्थ भरे हुए हैं। इसको शुद्धिका एक मात्र कारण रत्नत्रय हैं । इस प्रकार चितवन करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है। इसका चितवनः । करने से शरीर से ममत्व छूट जाता है और रत्नत्रय में 'अनुराग बढ जाता है।
आस्रवानुप्रेक्षा-कर्म के आस्रव के दोपों का चितवन करना पासवानुप्रेक्षा है। जिस प्रकार समुद्र में अनेक नदियों का पानी
आता है. उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा कर्मोंका आस्रव होता है। स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत होकर हाथी, वधबंधन-ताटना श्रादिके अनेक दुःख भोगता है. रसना इन्द्रिय के वशीभूत होकर मछली अपना कंठ छिदाती है, घ्राण इन्द्रियके कारण भ्रमर कमल में दवकर मर जाता है, चतुइन्द्रिय के वशीभूत होकर पतंग दीपक में जल मरता है और श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत होकर हिरण पकडा' या.. मारा जाता है। इस प्रकार इन्द्रियों के विषय अनेक दुखों को उत्पन्न करने वाले और परलोक में निंद्यगति को प्राप्त करने वाले. हैं । इस प्रकार चितवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। इसके चितवन' करने से मुनिराज इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर आत्म-धर्म में लग जाते हैं।
संघरानुप्रेक्षा-आस्रवको न होने देना संवर है, संवरके गुणों - का चितवनः करना. संवरानुप्रेक्षा है। संघर के होने से कल्याणं. मार्ग में या. मोक्ष मार्ग में कभी रुकावट नहीं होती। इस प्रकार, चितवन करना-संवरानुप्रेक्षा है।