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जैन-दर्शन
५७] एकत्वानुप्रेक्षा-इस संसार में यह जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है । जन्म मरण आदि के समस्त दुख अकेला ही भोगता है, इसमें कोई सहायक नहीं होता। केवल धर्म ही सहायक होता है तथा धर्म ही आत्मा के साथ नित्य रूप से रहता है। ऐसा चितवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इसका चितवन करने
से किसी से भी राग द्वेष नहीं होता और इस प्रकार वे मुनिराज . राग द्वाप छोडकर मोक्ष मार्ग में लग जाते हैं।
अन्यत्वानुप्रेक्षा-संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब मेरे आत्मा से भिन्न हैं, यहां तक कि यह शरीर भी आत्मा से भिन्न है। शरीर पुनल या जड है, आत्मा चेतन स्वरूप है। शरीर ज्ञान रहित है, आत्मा ज्ञान सहित है । शरीर इन्द्रिय गोचर है,
आत्मा अतीन्द्रिय है। शरीर अनित्य है, आत्मा नित्य है। इस एक ही श्रात्माने अवतक अनंत शरीर धारण किये हैं। इस प्रकार
आत्मा से शरीर को भिन्न चितवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इसके चितवन करने से शरीर से ममत्व छूट जाता है और वह आत्मा मोक्ष मार्ग में लग जाता है।
.. अशुचित्वानुप्रेक्षा-इस संसार में लोकोत्तर शुद्धता कर्ममल कलंक से रहित अपने आत्मो में है, उसका साधन रत्नत्रय है, उसके आधारभूत मुनिराज हैं और उनके अधिष्ठान निर्वाण भूमियां हैं। लौकिक शुद्धि काल, अग्नि, भस्म, मिट्टी, गोमय. जल, ज्ञान और विचिकित्सा है। परंतु यह शरीर इतना अशुद्ध है कि इन शुद्वियों से भी शुद्ध नहीं होता है । यह शरीर शुक्र श्रोणित से