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जैन-दर्शन अच्छा अभ्यास हो जाता है। अणुव्रत गुणवतों से महावत का अभ्यास हो जाता है और शिक्षाव्रतों से सामायिक, ध्यान करने, उपवास करने और त्याग करने का अभ्यास हो जाता है। इस पकार वह सम्यग्दृष्टी श्रावकों के ग्यारह स्थानों को प्राप्त होता हुश्रा अवश्य ही मुनिपद धारण कर लेता है। इस प्रकार बारह व्रतोंका निरूपण किया। अब इनका फल स्वरूप समाधिमरण वा सल्लेखना का स्वरूप कहते हैं।
सल्लेखना
लेखना शब्दका अर्थ कृश करना है। काय और कपायों का कृश करना सल्लेखना कहलाती है। जव श्रावक वा मुनि अनेक कारणों से अपनी आयुका अंत काल समझ लेते हैं तब वे सल्लेखनी धारण करते हैं। सबसे पहले वे राग द्वेष और मोहका त्याग करते है, परिग्रहोंका त्याग करते हैं उस समय वे स्वजन वा परिवार के लोगों से ममत्व का सर्वथा त्यागकर उनसे क्षमा मांगते हैं तथा सत्रको क्षमा करते हैं । इस प्रकार वे अपने मनको शुद्ध बना लेते हैं। उस समय अपने शत्रु से भी क्षमा मांग लेनी चाहिये और उसको क्षमा कर देना चाहिये । तदनंतर अनुक्रम से आहारका त्याग कर केवल दूध रखना चाहिये, फिर दूधका भी त्यागकर गर्म जल रखना चाहिये, और फिर गर्म जलका भी त्यागकर अंतसमय तक उपवास धारण करना चाहिये । उस समय शोक, भय, दुःख.