Book Title: Jain Darshan
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Mallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon

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Page 194
________________ और समस्त पर्यायों के मगर उनकी माता है । [१८२. जैन-दर्शन जाते हैं । तथा क्षायिकदान, क्षायिकलाम, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक चारित्र को मिलाकर नौ लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं । उस समय उनको अरहंत देव कहते हैं। उस समय उनकी उपमा किसी से नहीं दी जा सकती। समस्त उरलेपों से रहित, अत्यंत निर्मल, त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य और पर्यायों के स्वभाव को जानने वाले देखनेवाले, और समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाले हो जाते हैं । उस समय इन्द्रादिक समस्त देव श्राकर उनकी पूजा करते हैं और उनके लिये समवशरण या गंधकुटी की रचना करते हैं । शेष आयु तक वे भगवान अरहंत देव सर्वत्र विहार करते हुए धर्मोपदेश देते रहते हैं तथा सर्वत वोतराग होने के कारण उनका उपदेश यथार्थ होता है, मोक्षमार्ग को निरूपण करने वाला, और समस्त जीवों को कल्याण करने वाला होता है। १४. अयोगिकेवली-प्रायु के अन्त में वे भगवान अपने योगों का निरोध करते हैं और उस समय उनके चौदहवां गुणस्थान होता है । इसका काल अ इ उ र ल ये पांच अक्षर जितने समय में बोले जाते हैं उतना ही समय है। इस गुणस्थान के उपांत्य समय में वहत्तर प्रकृतियों को नष्ट करते हैं और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों को नष्ट कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे फिर सिद्ध परमेष्ठी सदा के लिये जन्म मरण रहित होकर अनन्तकाल तक मोक्ष में विराजमान होते हैं। तथा प्रात्मजन्य अनन्त सुख का अनुभव

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