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जैन-दर्शन तो दोनों एक साथ रहते हैं। इसलिये इनमें सहानवस्था रूप विरोध भी नहीं हो सकता । यदि आस्तित्व नास्तित को पूर्वोत्तर काल में माना जायगा तो जिस समय में आस्तित्व है उस समयमें नास्तित्व नहीं है तो फिर उस पदार्थ का कभी भी प्रभाव नहीं हो सकता । यदि केवल नास्तित्व ही मान लिया जाय, उस समय में अस्तित्व का अभाव मान लिया जाय तो फिर वंध मोन आदिका व्यवहार भी सब नष्ट हो जावेगा । इसलिये सहानवस्या रूप भी कभी किसो रूपमें नहीं बन सकता।
तीसरा विरोध प्रतिवध्य प्रतिबंधक रूप से होता है। जैसे फलों का गुच्छा जब तक बाली से संबंधित है, लगा हुआ है. तब तक वह भारी होने पर भी गिर नहीं सकता, क्योंकि डाली के साय उसका प्रतिबंध हो रहा है । जब उसका प्रतिबंध हट जाता है अली से हट जाता है वा ढाली से संबन्ध छूट जाता है तब वह मारो होने के कारण नीचे गिर जाता है; क्योंकि कोई भी भारी पदार्थ किसी के साथ संगेग सम्बन्ध न होने पर गिरता ही है। परन्तु अस्तित्व धर्म नास्तित्व धर्म का प्रतिबन्धक नहीं है अथवा नास्तित्व धम अस्तित्व धर्मका प्रतिबन्धक नहीं है । वे तो दोनों ही प्रत्येक पदार्थ में विवक्षा रूप से रहते हैं । इसलिये यह प्रतियध्व प्रतिबन्धक रूप विरोध श्री किसी प्रकार नहीं बन सकता। इस प्रकार यह सहज सिद्ध हो जाता है कि अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्मों का विरोध किसी भी पदार्थ में सिद्ध नहीं हो सकता। दोनों धर्म प्रत्येक पदार्थ में एक साथ रहते हैं।