________________
जैन-दर्शन
[९८
छठे
सम्यग्दर्शन के छठे अंग का नाम स्थितिकरण है। स्थिति करणका अर्थ स्थिर करना है। यदि कोई धर्मात्मा पुरुष किसी भी कारण से अपने सम्यग्दर्शन से या अपने सम्यश्चारित्र से चलायमान होता हो तो उसको उसी में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है। धर्मात्मा पुरुष अपने दर्शन चारित्र से कभी चलायमान नहीं होते तथा जो किसी विशेष कारण से चलायमान हो जाते हैं वे अपने आत्माका अकल्याण करते हैं। ऐसे पुरुप को समझा बुझा कर या जिस प्रकार बन सके उस प्रकार दर्शन या चारित्र में स्थिर कर देने से उसका भी कल्याण होता है तथा अन्य अनेक जीवों का कल्याण होता है। इसीलिये सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र से चलायमान होते हुए जीवों को सम्यग्दर्शन वा सम्यश्चारित्र में स्थिर कर देना सम्यग्दर्शनका छठा अंग कहा जाता है ।
सम्यग्दर्शन के सातवें अंगका नाम वात्सल्य है। वात्सल्यका अर्थ अनुराग है । जो जीव धार्मिक होता है वह धर्म से अत्यन्त अनुराग रखता है। धर्म से गाड अनुराग होने के कारण धर्मात्मा से भी अनुराग रखता है तथा धर्मात्माओं से गाड अनुराग रखना ही वात्सल्य अंग कहलाता है। धर्मात्मा पुरुप जो धर्मात्माओं से अनुराग रखते हैं उसमें किसी प्रकारका छल कपट नहीं रहता। उनका-वह अनुराग किसी स्वार्थ के कारण नहीं होता; किंतु केवल धर्म में अनुराग होने के कारण ही.धर्मात्माओं से अनुराग होता है और यही सम्यग्च्टी पुरुषका उस सम्यग्दर्शन का सातवां अंग कहलाता है। धर्मात्माओं में अनुराग होने के ही कारण वह