Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 29
________________ जैनदर्शन १७५ १७७ १८१ ७. तत्त्व-निरूपणः तत्त्वव्यवस्थाका प्रयोजन १५१ अविरति १७३ बौद्धोंके चार आर्यसत्य १५१ प्रमाद १७४ बुद्धका दृष्टिकोण १५३ कषाय १७४ आत्म तत्त्व १५४ योग जैनोंके सात तत्त्वोंका मूल आत्मा १५४ दो आस्रव १७५ तत्त्वोंके दो रूप मोक्षतत्त्व तत्त्वोंकी अनादिता १५७ दीपनिर्वाणकी तरह आत्माको अनादिबद्ध माननेका. आत्मनिर्वाण नहीं कारण ___ १५८ निर्वाणमें ज्ञानादि गुणोंका व्यवहारसे जीव मूर्तिक भी है १६० सर्वथा उच्छेद नहीं होता मात्माकी दशा १६० मिलिन्दप्रश्नके निर्वाणआत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि - १६३ वर्णनका तात्पर्य १७८ नैरात्म्यवादको असारता १६५ मोक्ष न कि निर्वाण ... १८० पञ्चस्कन्धरूप आत्मा नहीं. १६६ संवरतत्त्व आत्माके तीन प्रकार १६७ समिति १८१ चारित्रका आधार १६८ धर्म १८२ अजीवतत्त्व १६९ अनुप्रेक्षा १८३ बन्धतत्त्व १७० परीषहजय १८३ चार बन्ध. १७१ चारित्र आस्रवतत्त्व १७२ निर्जरातत्व मिथ्यात्व । १७२ मोक्षके साधन प्रमाणमीमांसा १८७-३३१ ज्ञान और दर्शन १८७ सामग्री प्रमाण नहीं प्रमाणादिव्यवस्थाका आधार. १८८ इन्द्रियव्यापार भी प्रमाण नही प्रमाणका स्वरूप १८९ प्रामाण्य-विचार प्रमाण और नय. . १९१ प्रमाणसम्प्लव-विचार १९९ विभिन्न लक्षण. ... ... ..१९२ प्रमाणके भेद २०१ अविसंवादकी प्रायिक स्थिति ११९२ प्रत्यक्ष प्रमाण... ... ... २०१ तदाकारता प्रमाण नहीं १९३ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष : २०४ १८४ १८५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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