Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 166
________________ षद्रव्य विवेचन दिशा स्वतन्त्र द्रव्य नहीं : । इसी आकाश के प्रदेशों में सूर्योदयकी अपेक्षा पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओंकी कल्पना की जाती है । दिशा कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । आकाश के प्रदेशोंकी पंक्तियाँ सब तरफ कपड़े में तन्तुकी तरह श्रेणीबद्ध हैं । एक परमाणु जितने आकाशको रोकता है उसे प्रदेश कहते इस नापसे आकाश के अनन्त प्रदेश हैं । यदि पूर्व, पश्चिम आदि व्यवहार होने के कारण दिशाको एक स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है, तो पूर्वदेश, पश्चिमदेश आदि व्यवहारोंसे 'देश द्रव्य' भी स्वतन्त्र मानना पड़ेगा | फिर प्रान्त, जिला, तहसील आदि बहुतसे स्वतन्त्र द्रव्योंकी कल्पना करनी पड़ेगी । १३३ शब्द आकाशका गुण नहीं : आकाशमें शब्द गुणकी कल्पना भी आजके वैज्ञानिक प्रयोगोंने असत्य सिद्ध कर दी है । हम पुद्गल द्रव्यके वर्णनमें उसे पौद्गलिक सिद्ध कर आये हैं । यह तो मोटी-सी बात है कि जो शब्द पौद्गलिक इन्द्रियोंसे गृहीत होता है, पुद्गलोंसे टकराता है, पुद्गलोंसे रोका जाता है, पुद्गलोंको रोकता है, पुद्गलोंमें भरा जाता है, वह पौद्गलिक ही हो सकता है । अतः शब्द गुणके आधारके रूपमें आकाशका अस्तित्व नहीं माना जा सकता । न 'पुद्गल द्रव्य' का ही परिणमन आकाश हो सकता है; क्योंकि एक ही द्रव्यके मूर्त और अमूर्त्त, व्यापक और अव्यापक आदि दो विरुद्ध परिणमन नहीं हो सकते । आकाश प्रकृतिका विकार नहीं : Jain Educationa International सांख्य एक प्रकृति तत्त्व मानकर उसीके पृथिवी आदि भूत तथा आकाश ये दोनों परिणमन मानते हैं । परन्तु विचारणीय बात यह है कि -एक प्रकृतिका घट, पट, पृथिवी, जल, अग्नि और वायु आदि अनेक रूपी भौतिक कार्योंके आकारमें ही परिणमन करना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है, क्योंकि संसारके अनन्त रूपी भौतिक कार्योंकी अपनी पृथक-पृथक सत्ता देखी जाती है । सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंका सादृश्य देखकर इन सबको एकजातीय या समानतो कहा जा सकता है, पर एक नहीं । किञ्चित् समानता होने के कारण कार्योंका एक कारणसे उत्पन्न होना भी आवश्यक नहीं है । भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होनेवाले सैकड़ों घटपटादि कार्य कुछ-न-कुछ जडत्व आदिके रूपसे समानता रखते ही । फिर मूर्तिक और अमूर्तिक; रूपी और अरूपी, व्यापक और अव्यापक, सक्रिय और निष्क्रिय आदि रूपसे विरुद्ध धर्मवाले पृथिवी आदि For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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