Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 138
________________ पदार्थका स्वरूप "दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित्, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः । स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । आत्मा तथा निवृतिमभ्युपेतः क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥" -सौन्दरनन्द १६।२८-२९ । अर्थात्-जिस प्रकार बुझा हुआ दीपक न किसी दिशाको जाता है, न विदिशाको, न आकाशको और न पातालको, किन्तु तेलके क्षय हो जाने पर केवल बुझ जाता है, उसी तरह निर्वाण अवस्थामें चित्त न दिशाको जाता है, न विदिशाको, न आकाशको और न पृथ्वीको । वह क्लेशके क्षयसे केवल शान्त हो जाता है। उच्छेदात्मक निर्वाण अप्रातीतिक है : ____ इस तरह जब उच्छेदात्मक निर्वाणमें चित्तको सन्तान भी समाप्त हो जाती है, तो उस 'मृषा' सन्तानके बलपर संसार अवस्थामें कर्मफलसम्बन्ध, बन्ध, मोक्ष, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान आदिकी व्यवस्थाएँ बनाना कच्ची नीवपर मकान बनानेके समान हैं। झूठी संतानमें कर्मवासनाका संस्कार मानकर उसीमें कपासके बीजमें लाखके संस्कारसे रंगभेदकी' कल्पनाकी तरह फलकी संगति बैठाना भी नहीं जम सकता। कपासके बीजके जिन परमाणुओंको लाखके रंगसे सींचा था, वे ही स्वरूपसत् परमाणुपर्याय बदलकर रुईके पौधेकी शकलमें विकसित हुए हैं, और उन्हींमें उस संस्कारका फल विलक्षण लाल रंगके रूपमें आया है। यानी इस दृष्टान्तमें सभी चीजें वस्तुसत् हैं, 'मृषा' नहीं, किन्तु जिस सन्तानपर बौद्ध कर्मवासनाओंका संस्कार देना चाहते हैं और जिसे उसका फल भुगतवाना चाहते हैं, उस सन्तानको पंक्तिकी तरह बुद्धिकल्पित नहीं माना जा सकता, और न उसका निर्वाण अवस्थामें समूलोच्छेद ही स्वीकार किया जा सकता है। अतः निर्वाणका यदि कोई युक्तिसिद्ध और तात्त्विक स्वरूप बन सकता है तो वह निरास्रवचित्तोत्पाद १. “यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा ॥" --तत्त्वसं० पं० पृ० १८२ में उद्धृत। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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