Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 151
________________ जैनदर्शन स्वयं अपनेमें शंकित रहता है, और अपने ही मनोभावोंसे परेशान रहता है । उसकी यह परेशानी ही बाहरी वातावरणसे उसकी इष्टसिद्धि नहीं करा पाती। __चार व्यक्ति एक ही प्रकारके व्यापारमें जुटते हैं, पर चारोंको अलग-अलग प्रकारका जो नफा-नुकसान होता है, वह अकारण ही नहीं है। कुछ पुराने और कुछ तत्कालीन भाव वातावरणोंका निचोड़ उन-उन व्यक्तियोंके सफल, असफल या अर्धसफल होने कारण पड़ जाते हैं । पुरुषकी बुद्धिमानी और पुरुषार्थ यही है कि वह सद्भाव और प्रशस्त वातावरणका निर्माण करे। इसीके कारण वह जिनके सम्पर्क में आता है उनकी सद्बुद्धि और हृदयकी रुझानको अपनी ओर खींच लेता है, जिसका परिणाम होता है---उसकी लौकिक कार्योंकी सिद्धि अनुकूलता मिलना । एक व्यक्तिके सदाचरण और सद्विचारोंको शोहरत जब चारों ओर फैलती है, तो वह जहाँ जाता है, आदर पाता है, उसे सन्मान मिलता और ऐसा वातावरण प्रस्तुत होता है, जिससे उसे अनुकूलता ही अनुकूलता प्राप्त होती जाती है । इस वातावरणसे जो बाह्य विभूति या अन्य सामग्रीका लाभ हुआ है उसमें यद्यपि परम्परासे व्यक्तिके पुराने संस्कारोंने काम लिया है; पर सीधे उन संस्कारोंने उन पदार्थोंको नहीं खींचा हैं। हाँ, उन पदार्थोंके जुटने और जुटानेमें पुराने संस्कार और उसके प्रतिनिधि पुद्गल द्रव्यके विपाकने वातावरण अवश्य बनाया है। उससे उन-उन पदार्थोंका संयोग और वियोग रहता है। यह तो बलाबलकी बात है। मनुष्य अपनी क्रियाओंसे जितने गहरे या उथले संस्कार और प्रभाव, वातावरण और अपनी आत्मापर डालता है उसीके तारतम्यसे मनुष्योंके इष्टानिष्टका चक्र चलता है। तत्काल किसी कार्यका ठीक कार्यकारणभाव हमारी समझमें न भी आये, पर कोई भी कार्य अकारण नहीं हो सकता, यह एक अटल सिद्धान्त है। इसी तरह जीवन और मरणके क्रममें भी कुछ हमारे पुराने संस्कार और कुछ संस्कारप्रेरित प्रवृत्तियाँ तथा इह लोकका जीवन-ध्यापार सब मिलाकर कारण बनते हैं। नूतन शरीर धारणको प्रक्रिया: - जब कोई भी प्राणी अपने पूर्व शरीरको छोड़ता है, तो उसके जीवन भरके विचारों, वचन-व्यवहारों और शरीरकी क्रियाओंसे जिस-जिस प्रकारके संस्कार आत्मापर और आत्मासे चिरसंयुक्त कार्मण-शरीरपर . पड़े हैं, अर्थात् कार्मणशरीरके साथ उन संस्कारोंके प्रतिनिधिभूत पुद्गल द्रव्योंका जिस प्रकारके रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि परिणमनोंसे युक्त होकर सम्बन्ध हुआ है, कुछ उसी प्रकारके अनुकूल परिण मनवाली परिस्थितिमें यह. आत्मा. नूतन जन्म ग्रहण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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