Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 145
________________ जैनदर्शन कुछ शरीर और शरीर के अवयवोंके आधीन हो रही है । मस्तिष्कके किसी रोगसे विकृत हो जाने पर समस्त अर्जित ज्ञान विस्मृतिके गर्भ में चला जाता है । रक्तचापको कमी-बेशी होने पर उसका हृदयकी गति और मनोभावोंके ऊपर प्रभाव पड़ता है । ११२ आधुनिक भूतवादियों ने भी थाइराइड और पिचुयेटरी ( Thyroyd and Pituatury ) ग्रन्थियोंमेंसे उत्पन्न होनेवाले हारमोन ( Hormone ) नामक द्रव्य कम हो जाने पर ज्ञानादिगुणोंमें कमी आ जाती है, यह सिद्ध किया है । किन्तु यह सब देहपरिमाणवाले स्वतंत्र आत्मतत्त्वके मानने पर ही संभव हो सकता है; क्योंकि संसारी दशामें आत्मा इतना परतन्त्र है कि उसके अपने निजी गुणोंका विकास भी बिना इन्द्रियादिके सहारे नहीं हो पाता । ये भौतिक द्रव्य उसके गुणविकास में उसी तरह सहारा देते हैं, जैसे कि झरोखेसे देखनेवाले पुरुषको देखने में झरोखा सहारा देता है । कहीं-कहीं जैन ग्रन्थोंमें जीवके स्वरूपका वर्णन करते समय पुद्गल विशेषण भी दिया है, यह एक नई बात है । वस्तुतः वहाँ उसका तात्पर्य इतना ही है कि जीवका वर्तमान विकास और जीवन जिन आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा और मन पर्याप्तियोंके सहारे होता है वे सब पौद्गलिक हैं । इस तरह निमित्तकी दृष्टिसे उसमें 'पुद्गल' विशेषण दिया गया है, स्वरूपकी दृष्टिसे नहीं । आत्मवादके प्रसंग में जैनदर्शनका उसे शरीररूप न मानकर पृथक् द्रव्य स्वीकार करके भी शरीरपरिमाण मानना अपनी अनोखी सूझ है और इससे भौतिकवादियोंके द्वारा दिये जानेवाले आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है । इच्छा आदि स्वतंत्र आत्माके धर्म हैं : इच्छा, संकल्पशक्ति और भावनाएँ केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं कही जा सकतीं; क्योंकि किसी भी भौतिक यंत्रमें स्वयं चलने, अपने आपको टूटनेपर सुधारने और अपने सजातीयको उत्पन्न करनेकी क्षमता नहीं देखी जाती । अवस्थाके अनुसार बढ़ना, घावका अपने आप भर जाना, जीर्ण हो जाना इत्यादि ऐसे धर्म हैं, जिनका समाधान केवल भौतिकतासे नहीं हो सकता । हजारों प्रकारके छोटे-बड़े यन्त्रोंका आविष्कार, जगत् के विभिन्न कार्य-कारणभावोंका स्थिर करना, गणितके आधारपर ज्योतिषविद्याका विकास, मनोरम कल्पनाओंसे साहित्याकाशको रंग-विरंगा करना आदि बातें, एक स्वयं समर्थ, स्वयं चैतन्यशाली द्रव्यका ही कार्य हो सकती हैं । प्रश्न उसके व्यापक, अणु-परिमाण या मध्यम परिणामका १, “ जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो ।” Jain Educationa International - उद्धृत, धवला टी० प्र० पु०, पृष्ठ ११८ | For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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