Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 48
________________ सामान्यावलोकन सारमें ज्ञानका प्रत्यक्ष और परोक्षभेदोंमें विभाजन स्पष्ट होनेपर भी उनकी सत्यता और असत्यताका आधार तथा लौकिक प्रत्यक्षको परोक्ष कहनेकी परम्परा जैसीकी तैसी चालू थी। यद्यपि कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार और समयसार ग्रन्थ तर्कगर्भ आगमिक शैलीमें लिखे गये हैं, फिर भी इनकी भूमिका दार्शनिककी अपेक्षा आध्यात्मिक ही अधिक है। पूज्यपाद : ___ श्वेताम्बर विद्वान् तत्त्वार्थसूत्रके तत्त्वार्थाधिगम भाष्यको स्वोपज्ञ मानते हैं । इसमें भी दर्शनान्तरीय चर्चाएँ नहींके बराबर हैं। आ० पूज्यपादने तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि नामकी सारगर्भ टीका लिखी है। इसमें तत्त्वार्थके सभी प्रमेयोंका विवेचन है। इनके इष्टोपदेश, समाधितन्त्र आदि ग्रन्थ आध्यात्मिक दृष्टिसे ही लिखे गये हैं । हाँ, जैनेन्द्रव्याकरणका आदिसूत्र इनने “सिद्धिरनेकान्तात्” ही बनाया है । २. अनेकान्त-स्थापनकाल समन्तभद्र और सिद्धसेन : जब बौद्धदर्शनमें नागार्जुन, वसुबंधु, असंग तथा बौद्धन्यायके पिता दिग्नागका युग आया और दर्शनशास्त्रियोंमें इन बौद्धदार्शनिकोंके प्रबल तर्कप्रहारोंसे बेचैनी उत्पन्न हो रही थी, एक तरहसे दर्शनशास्त्रके तार्किक अंश और परपक्ष खंडनका प्रारम्भ हो चुका था, उस समय जैनपरम्परामें युगप्रधान स्वामी समन्तभद्र और न्यायावतारी सिद्धसेनका उदय हुआ। इनके सामने सैद्धान्तिक और आगमिक परिभाषाओं और शब्दोंको दर्शनके चौखटेमें बैठानेका महान कार्य था। इस युगमें ..जो धर्मसंस्था प्रतिवादियोंके आक्षेपोंका निराकरण कर स्वदर्शनकी प्रभावना नहीं कर सकती थी उसका अस्तित्व ही खतरेमें था। अतः परचक्रसे रक्षा करनेके लिये अपना दुर्ग स्वतः संवृत करनेके महत्त्वपूर्ण कार्यका प्रारम्भ इन दो महान् आचार्योंने किया। स्वामी समन्तभद्र प्रसिद्ध स्तुतिकार थे। इनने आप्तकी स्तुति करनेके प्रसंगसे आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन और बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रमें एकान्तवादोंकी आलोचनाके साथ-ही-साथ अनेकान्तका स्थापन, स्याद्वादका लक्षण, सुनय-दुर्नयकी व्याख्या और अनेकान्तमें अनेकान्त लगानेकी प्रक्रिया बताई। इनने बुद्धि और शब्दकी सत्यता और असत्यताका आधार मोक्षमार्गोपयोगिताकी जगह बाह्यार्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिको बताया' । 'स्वपरावभासक बुद्धि प्रमाण है' यह प्रमाणका लक्षण स्थिर १. आप्तमी० श्लो० ८७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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