Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 111
________________ जैनदर्शन अन्ततः संस्कार तो आत्मामें ही उत्पन्न करती है और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले पुद्गलद्रव्य कार्मणशरीरसे बँधते हैं। ये पुद्गल शरीरके बाहरसे भी खिंचते हैं और शरीरके भीतरसे भी। उम्मीदवार कर्मयोग्य पुद्गलोंमेंसे कर्म बन जाते हैं। कर्मके लिए एक विशेष प्रकारके सूक्ष्म और असरकारक पुद्गलद्रव्योंकी अपेक्षा होती है। मन, वचन और कायकी प्रत्येक क्रिया, जिसे योग कहते हैं, परमाणुओंमें हलन-चलन उत्पन्न करती है और उसके योग्य परमाणुओंको बाहर भीतरसे खींचती जाती है । यों तो शरीर स्वयं एक महान् पुद्गल पिंड है । इसमें असंख्य परमाणु श्वासोच्छ्वास तथा अन्य प्रकारसे शरीरमें आते-जाते रहते हैं । इन्हींमेंसे छटकर कर्म बनते जाते हैं । जब कर्मके परिपाकका समय आता है, जिसे उदयकाल कहते हैं, तब उसके उदयकालमें जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी सामग्री उपस्थित होती है वैसा उसका तीव्र, मध्यम और मन्द फल होता है। नरक और स्वर्ग में औसतन असाता और साताकी सामग्री निश्चित है। अतः वहाँ क्रमशः असाता और साताका उदय अपना फलोदय करता है और साता और असाता प्रदेशोदयके रूपमें अर्थात् फल देनेवाली सामग्रीकी उपस्थिति न होनेसे बिना फल दिये ही झड़ जाते हैं । जीवमें साता और असाता दोनों बँधी हैं, किन्तु किसीने अपने पुरुषार्थसे साताकी प्रचुर सामग्री उपस्थित की है तथा अपने चित्तको सुसमाहित किया है तो उसको आनेवाला असाताका उदय फलविपाकी न होकर प्रदेशविपाकी ही होगा। स्वर्गमें असाताके उदयकी बाह्य सामग्री न होनेसे असाताका प्रदेशोदय या उसका सातारूपमें परिणमन होना माना जाता है । इसी तरह नरकमें केवल असाताकी सामग्री होनेसे वहाँ साताका या तो प्रदेशोदय ही होगा या उसका असातारूपसे परिणमन हो जायगा। ____ जगत्के समस्त पदार्थ अपने-अपने उपादान और निमित्तके सुनिश्चित कार्यकारणभावके अनुसार उत्पन्न होते हैं और सामग्रीके अनुसार जुटते और बिखरते हैं। अनेक सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाएँ साता और असाताके साधनोंकी व्यवस्थाएँ बनाती है । पहले व्यक्तिगत संपत्ति और साम्राज्यका युग था तो उसमें उच्चतम पद पानेमें पुराने साताके संस्कार कारण होते थे, तो अब प्रजातंत्रके युगमें जो भी उच्चतम पद हैं, उन्हें पानेमें संस्कार सहायक होंगे। जगत्के प्रत्येक कार्यमें किसी-न-किसीके अदृष्टको निमित्त मानना न तर्कसिद्ध है और न अनुभवगम्य ही । इस तरह यदि परम्परासे कारणों की गिनती की जाय तो कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। कल्पना कीजिए-आज कोई व्यक्ति नरकमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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